विकास | Vikaas

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Vikaas by गोविन्द दास - Govind Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ विकासं 1 निवारण करने का प्रयत्न करना पड़ता हे । (प्रथ्वी का मुख चूमते हुए ) प्राणेश्वरी, अत्यन्त बुद्धिमती होने के कारण तुम इला कहलाती हो, किन्तु, इतने पर भी तुम्हारे इस मूखतापूण भ्रम का क्या कारण है, जानती हो ? प्रथ्वी--( आकाश का दृढ़ालिज्ञननकर ) क्या, तारापथ 1 आकाश--तुम्हारा खय॑ चक्रवत घूमना। तुम्हारे स्वयं के घूमने के कारण तुम्हें सारी सृष्टि उसी प्रकार घूमती हुईं दिखायी पड़ती है । इस भ्रम में अचल हो जाने के कारण, आठों पहर चोंसठों घड़ी चलित रहने पर भी तुम अचला कहलाती हो /तुम्हारे बन्धु गणों का यह भ्रम भी उनके स्वयं के घूमने के कारण ही है। प्रथ्वी--तुम्हारे इस तक का तो यह उत्तर हो सकता है, अन्त- रिक्ष, कि तुम स्वयं उन्नत, अत्यन्त उन्नत हो, अतः तुम्हें यही भ्रम रहता है कि सारी सृष्टि उन्नति की ओर ही अग्रसर हे । आकाश--( आश्चय से ) भ्रम ! और मुभ अनन्त को! बात यह है, हृदये श्वरी, कि तुम्हें ओर तुम्हारे बन्धुगणों को केवल अपनी सृष्टि का ही ज्ञान है, किन्तु मेरा सम्पक तो सभी से है । तुम और बे प्रथक-प्रथक्‌ रूप से नहीं जानते कि सभी ओर उन्नति की कैसी धूम मची हुई है। प्रथ्वी--मुमे चाहे अपने अतिरिक्त और किसी का ज्ञान न हो, किन्तु




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