अनेकान्त | Anekant

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६४६ करने, स्नान करने, बदन साफ़ रखने, कपड़े निकालकर चौके येटकर रोटी खाने, चौकेके अन्य भी अनेक बाड़ा नियमोंके पालनेको ही महाधर्म समझते हैं; जो इन नियमोंकों पालन करता है वह ही धर्म्मा श्रौरजो किचितमान्र भी नियम भंग करता है वह ही धर्मी पापी और पतित समझा जाता है। नेकी, बदी, नेकचलनी, बदचलनी पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है; यहाँ तक कि कोई चाहे कितना ही दुराचारी हो परन्तु जाति भेद और चौकेके यह सय नियम पालता हो तो वह धमेसे पतित नहीं है, भोर जो पूरा सदाचारी है परन्तु इन नियर्मोको भंग करता है तो वह श्रधर्मी और पापी है । बाह्मर्णोकी अनेक जातियोंमें मांस खाना उचित है, उनके चौकेमें मांस पकते हुये भी दूसरी जातिका कोई आदमी जिसके हाथका वह पानी पीते हों परन्तु रोटी न खाते हों, यदि उनके चौकेकी धरती भी छूदेगा तो उनका चौका भष्ट हो जायगा । परन्तु मांस पकनेसे अष्ट नहीं होगा, हसही प्रकार हिन्दुस्तानकी हज़ारों जातियोंके इस चूल्हे चौकेके विषयमें अलग २ नियम हैं ओर फिर देश देशके नियम भी एक दुमरेमे नहीं লিন हैं, तो भी प्रत्येक जानि और प्रस्येक देश अपने लिये अपने ही नियमोंको हेश्वरीय नियम मानते हैं श्रौर उन ही के पारलैनको धर्म और भंग करनेको श्रध जानते हैं । আহ লবাআানূক্ষা গল बिल्कुल ही इसके प्रतिकूल है, वह इन सब ही लोकिक नियमों, विधि विधानों, रू- ढ़ियों और रीति रिवाजोंको लौकिक मानकर सुख्से लौकिकः जीवन व्यनीन करनेके वास्ते पालनेको मना नहीं करता है; किन्तु इनको घामिक नियम मानकर इनके पालनसे धमंपालन होना और न पालनेसे अ्रधर्म झौर पाप हो जाना माननेको महा मिथ्यात्व और धर्म- का रूप बिगाद कर उसे विक्रत करदेना ही बताता है; जिसका फल पापके सिवाय ओर कुछ भी नहीं हो सकता हैं । बीरभगवानके बताये घर्मका स्वरूप श्री आचार्योंके ग्रन्थोंसे ही मालूम हो सकता है। उन्होंने अपने प्रंथों में अनेक ज़ोरदार ग्रक्तियों ओर प्रमाणोंसे यह सिद्ध किय ৭৮৭ ২৯ ण সপ [ आशिवन, वीर-निर्वाण सं० २४६४ পপ हे कि वीरभगवानके धमे जातिमेदको कोरे भी स्थान नहीं है, जैसा कि श्चादिपुराण, उत्तरपुराख, पद्मपुराण, धर्म परीक्षा, वारांगचरित्र और प्रमेथ कमलमातंण्डके कथनोंको दिखाकर और उनके कछोक पेश करके अनेकान्त किरण ठ वषं २ मे षिद्ध किया गया है। इस ही प्रकार रककरर्डश्रावकाचार, चारित्रपाहुड स्वामिका तिकेयानु- पराके श्छोक देकर अनेकान्त वषं २ किरण «मे यह सिद्ध किया है कि जातिसेद सम्थक्स्वका घातक है । इस ही प्रकार अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ में रलकरण्ड श्रावकाचार, सर्वार्थंसिद्धि, राजवातिक, श्छोकवातिक जेमे महान अंथोंके द्वारा यह दिखाया है कि नैन धम॑को शारीरिक शुद्धि अशुद्धिसि कुछ मतलब नहीं है, यहाँ तक कि उपवास जेसी धर्मक्रियामें स्नान करना मना बताया हे, स्नान करनेको भोगोपभोग परिमाण तमे भी एक प्रकारका भोग बताकर त्याग करनेका उपदेश किया है, पद्मनंदिपंचविशतिकामे तो स्नानको साकतात्‌ ही महाम्‌ हिसा सिद्ध किया हैं। जेन शाखोंमें तो अ्रन्तरास्मा की शुद्धिको ही वास्तविक शुद्धि बताया है, दशलक्षण धर्म शंच भी एक धमं ह । जिसका श्र लोभ न करना हं। किया है। सुख प्राक्च करानेवाला सातावेदनीय जो कमं है उसकी उत्पत्तिका कारण दया- शौच और शांति आदि बताया है, यहाँ भी शौचका अर्थ लोभका न होना ही कहा है; हस्यादिक सर्वत्र मनकी शुद्धिकों ही धर्म ठहराया है। पाठकोंसे निवेदन है किवे जैन धमंका वास्तविक स्वरूप जाननेके लिये ছল सब ही लेखोंको ज़रूर पढ़ें, फिर उनको जो सत्य मालूम पड़े उसको ग्रहण करें और मूठ को त्यागे । अ्रन्तमें पाठकोंसे प्रेरणा की जाती है कि वे बवीर- प्रभके वस्तुस्वभावी वैज्ञानिकर्म और अ्रम्य मतियोंकी ईश्वरीय राज्यआज्ञा वा रूढ़ि धर्मकी तुलना अच्छी तरहमे करके सत्य स्वाभाविक धमंको अंगीकार कर ओर अन्य मतियोंक्रे संगति और प्राबल्यसे जो कुछ अंश उनके घ्मका हमारेमें आगया हो और वस्तु स्व- भावी घमंसे मेल न खाता हो उसके त्यागनेमें ज़रा भी हिषकिचाहट न करं ।




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