जैन जागरण के अग्रदूत | Jain Jagran Ke Agradut
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
626
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ये देदी-मेदीः रेख्काएँ
हमारे यहाँ तीर्थ छूरोंका प्रामाणिक जीवन-चरित्र नही, आचार्योंके
कार्य-कलापकी तालिका नही, जैन-संघके लोकोपयोगी कार्योकी सूची
नही; जैन-सम्राटो, सेवानायको, मत्रियोके बल-पराक्रम और शासन-
अणालीका कोई लेखा नही, साहित्यिकों एवं कवियोंका कोई परिचय
नहीं। और-तो-और, हमारी आँखोके सामने कल-परसों गुजरनेवाली
विभूतियोंका कही उल्लेख नही, और ये जो दो-चार बड़े-बूढ़े मौतकी
चौखटपर खडे हे; इनसे भी हमने इनके अनुभवोकों नहीं सुना है, और
शायद भविष्यमे दस-पाँच पीढीमें जन्म लेकर मर जानेवालों तकके लिए
परिचय लिखनेका उत्साह हमारे समाजको नही होगा ।
प्राचीन इतिहास न सही, जो हमारी आंखोके सामने निरन्तर गंज़र
रहा है, उसे ही यदि हम बठोरकर रख सकें, तो शायद इसी बटोरनमें
कुछ जब्ाहरपारे भी आगेकी पीढ़ीके हाथ लग जाएँ । इसी दृष्टि से-
बीती ताहि बिसार दे आगेकी खुध लेदि
तीतिके अनुसार संस्मरण लिखनेका डरते-डरते प्रयास किया । डरते-
डरने इसलिए कि प्रथम तो में संस्मरण लिखनेकी कलासे परिचित
नही । दूसरे अत्यन्त सावधानी बरतते हुए भी यत्र-तत्र आत्म-विज्ञापनकी
ग्रन्ध-सी आने लगी । नौसिखुआ होनेके कारण इस गन्धको निकालनेमें
समर्थ न हो सका । तीसरे मेरा परिचय क्षेत्र भी अत्यन्त सकूचित और
सीमित था। फिर भी साहस करके दो-एक संस्मरण, पत्रोंकों भेज दियें।
अ्रकाशित होनेपर ये अनसंवरी टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ भी अपनोंको पसन्द
आं, ओर उन्हीके आग्रहपर ये चन्द संस्मरण भौर लिखे जा सके ।
इन संस्मरणोको ज्ञानपीठकी गरस पुस्तकाकारं प्रकाशित करनेकी
खत उट तो मे स्वयं यह प्रयत्न अधूरा बौर छिदछोरापन-खा भालूम
देने लगा । “इन्ही महातुभावोंके संस्मरण क्यों प्रकाशित किये जायें,
जमुक-अमुक महानुभावोके संस्मरण भी कयो न प्रकाशित किये जायें ? ”
यह स्वाभाविक प्रन उठना लाजड़िमी था। लोकोदय-द्रन्वमालाके विद्वान्
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