साहित्य का श्रेय और प्रेम | Sahitya Ka Shrey Aur Prem

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Sahitya Ka Shrey Aur Prem by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरे साहित्य का श्रेय श्र प्रेय ६ रूप हमने उन प्रतीको में नहीं ला उतारा । इस तरह वे परम-पुरुष रूम की झ्ोर से भी भुवन-मोहन बन गए । इसी से कहना होगा कि सत्य से सुन्दर कुछ हैं ही नहीं । सूरज से धूप मिलती है धूप मे क्या रूप है ? जो है वह श्राख के वस का नहीं है इतना धौला है । पर वया उसीकी कुछ किरणों में से सतरगी इन्द्र- घनुष हमको नही प्राप्त होता ? बालक धूप का श्रादी है लेकिन झास- मान में सतरगी धनुष को खिचा देख कर वह एकाएक किलकारी मार उठता है । देखते-देखते वह घनुष सिट जाता है और वह विचारा श्रास लगाता हैं कि कब वहीं बाकी सतरगी कमान फिर देखने को मिलेगी । मानो उसके श्रावन्द के विकट दुनिया उस धनुष के कारण ही सच हो भ्रन्यथा सब फीका हो श्र व्यर्थ । मानना होगा कि हमारी श्राखें क्योंकि रूप पर खुलती हू इसलिए झगर कोई सत्य हो तो उसे हमारे सामने रूपवानू होकर ही शझाने का साहस करना चाहिए । और सचमृच साहित्य इसका ध्यान रखता है । ग्रादमी की इस पहली श्रसमथंता का ध्यान न रख कर चलने वाले दाशनिक जीवनभर सत्य तत्व खोजते श्रौर शब्दो मे उन्हे यूथ कर बखेर जाते हे। पर कोई उन्हे लूटने नहीं लपकता । सृन्दर नहीं है सच पूछिए तो उपयोगी सत्य वही है । पर सत्य के उपयोग से निरलो को काम । पहली भ्रावश्यकता लोगो की है प्रेम श्रौर रूप से श्रस्थे होकर प्रेम कैसे हो । मे मानता हु कि साहित्य सत्य के प्रति मनुष्य में वहीं अनन्य प्रेम उत्पन्न करता है श्रौर वह भ्रनजाने तौर पर क्योंकि जिस प्रेय को वह पाठक की रागात्मक वृत्तियों के झ्रागे प्रत्यक्ष कर उठाता है वह फिर उत्तरोत्तर दिव श्रौर सत्य के सिवा कुछ दूसरा है ही नही । इस जगह श्राकर मान लेता हू कि प्रेय से मेरी छुट्टी हुई क्योकि वेह सरक कर श्रेय मे मिल गया श्रौर स्वय से खो गया । तो श्रेय की जहा तक बात हैं में स्वार्थ से चलना चाहता हु । तब




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