महाभारत के पात्र भाग ४ | Mahabharat Ke Patra Vol IV
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
आचार्य नानाभाई भट्ट - Acharya Nanabhai Bhatt,
मंजुल अरोड़ा - Manjul Arora,
शंकरलाल वर्मा - Shankarlal Verma
मंजुल अरोड़ा - Manjul Arora,
शंकरलाल वर्मा - Shankarlal Verma
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
250
श्रेणी :
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आचार्य नानाभाई भट्ट - Acharya Nanabhai Bhatt
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शंकरलाल वर्मा - Shankarlal Verma
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मैत्री. वैर ११
अंगरक्षक के म'ह से यह शब्द सुनते ही द्रोण स्तब्ध रह्
गये ! उनका मु ह फीका पड़ गया । उनके हाथ-पेर क्रोध के मारे
कांपने लगे उनके मनके महल सब एक साथ टूटकर गिर पड ।
उन्होंने कहा--“भाई, द्र पद कहां है ???
अंगरक्षक ने जवाब दिया--“विश्राम कर रहे है |”
“इस पास के कमरे में जो बैठे है, वही मुझे द्र पद् प्रतीत
होते हैं। मुझे उनके पास जाना है”---यह कहते हुए द्रोण के पैर
उधर को बढ़ने लगे |
“सहाराज, आज्ञा नहीं है।” अगरक्षक यह कहकर उन्हें
रोकने लगा । लेकिन द्रोण तो अग्नि रूप धारण करके सीधे
कमरे मे जा पहुचे । महाराज श्रपद एक बड़े सिंहासन पर बैठें-
बैठे पास के कमरे की यह सब बातचीत सुन रदे थे । द्रोण ने
कमरे में घुसकर एक बार फिर अभिवादन करते हुए कहा--
“महाराज द्र पद की जय हो, जय हो |”
द्रोश सिंहासन के निकट पहुचे और कहने लगे--“महाराज
द्र पद, क्या मे पहचाना ९”?
“तुम्हे कहीं देखा तो प्रतीत होता है ।” द्र पद ने कहा ।
“से भरद्वाज का पुत्र द्रोण हु। अग्निवेश के आश्रम मे
अपन साथ-साथ पढ़ते थे ।” दोश ने याद दिलाई ।
“हा, तुम कहते हो तब याद तो आती है। जहां इतने सारे
शिष्य पढ़ते हों, वहा सबकी याद भी किस तरह रह सकती है १”
द् पद ले उपेक्षा भाव से कहा।
द्रोण ने सिंहासन के अधिक निकट जाकर कहा--“शिष्य
इतने अधिक थे, यह तो ठीक । लेकिन द्वोश और ह पद् घनिष्ठ
भिन्न थे, इतना अन्तर था ,
“महाराज, दूर खड़े रहो) राजा-महाराजाओं की गरीब
भिक्ुकों के साथ मेत्री हो नहीं सकती ।” व पद ने रोष से कहा।
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