जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ | Jain Dharm Ki Hajar Shikshayein

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Jain Dharm Ki Hajar Shikshayein by मधुकर मुनि -Madhukar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सानव-जीवन १६ ५ तमो खाणाडइ्‌ देवे पीहेज्जा ঘুষ भवं, आरिए चेत्ते जम्म, सृकुल पञ्चायाति । ---स्थानाग्‌ ३३ देवता भी तीन वातो की इच्छा करते है-- मनुष्यजीवन, आर्यक्षे चर मे जन्म ओरं श्रेष्ठ कुलकी प्राप्ति ६ जिह्व ! प्रह्वीभव त्व सूकृति-युचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना, भरयास्तामन्यकोति घ्र तिरसिकतया मेभ्यकणो सुकणो । वीक्ष्याल्य प्रौढलक्ष्मी द्र तसुपचिनुत लोचने ! रोचनत्वं, ससारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो मृख्यमेव ॥ “शान्तसुधारस, प्रमोदभावना १४ हे जीभ! धार्मिको के दानादि गुणो का गान करने मे भत्यन्त प्रसन्न होकर तत्पर रहो । कानौ ! दूसरो की कीत्ति सुनने मे रसिक होकर सुकणे (अच्छे कान) बनो । नेन्नो ! दूसरों की बढती हुई लक्ष्मी को देखकर प्रसन्नता प्रकट करो । इस असार-ससार मे जन्म पाने का तुम्हारे लिए यही मुख्य फल है । ७ स्वणस्थाले क्षिपति सरज पाद शौच विधत्ते, पीयुषेण प्रवरकरिण वाहयत्येन्धभारम्‌ । चिन्तारत्तं विक्रिरति कराद्‌ वायसौङ्डायनार्थ, यो दुष्प्राप्यं गमयति सुधा मत्यजन्मप्रमत्त.। - सिन्‍्दूरप्रकरण ५ जो व्यक्ति आलस्य-प्रसाद के वश, मनुष्य जन्म को व्यर्थ गँवा र्हा है, वह अज्ञानी मनुप्य सोने के थालमे सिट्‌टी भर रहा है, अमृत से पैर धो रहा है, श्रेष्ठ हाथी पर ईन्धन ढो रहा हैं और चिन्तामणि रत्ने को काग्र उड़ाने के लिए फंक रहा है ।




User Reviews

  • Jain Sanjeev

    at 2019-09-11 08:55:44
    Rated : 10 out of 10 stars.
    "Very Nice Book"
    Jay jinshasan
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