भारतीय दार्शनिक समस्याएं | Bharatiya Darshanik Samasyayen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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14 भारतीय दार्थेनिक समस्याएं अची ऋर चुके हैं तथा इसे यहाँ दोहराने की भावश्यकता नहीं है 1 इस प्रकार न्‍्याय-वैशेषिक प्ादि दर्शनों के विपरीत सांख्य-योग ज्ञान को झात्मा का गुर भयदा कमं मानने को तयार नहीं है। चैतन्य स्वयं में तत्त्व है, किसी का गुण प्रयवा क्म नहीं । सास्य दर्शन के ्रनुसार पुदप भयव भारमा शद चंतम्य स्वरूप, निष्क्रिय, निविकारी, प्रभोकता तथा भ्रपरिणामी है । सांस्य दर्शन में शान” शब्द दो प्रयाँ में प्रयुक्त हुमा है। प्रथम तो पुरुष को जब शानस्वरूप कहा है तब उसका भर्थ शुद्ध चेतन्य से है। इसीलिए पुरुष को ये शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चंतन्यस्वरूप परिभाषित करते हैं। किन्तु साथ ही शान णन्द को व्यावहारिक ज्ञान के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है तथा सांख्य के भनुसार ज्ञान के स्वरूप को सममते के लिए इन दोतों भययों के भेद को भली प्रकार सममता पदेष्यक ই। सर्वप्रथम तो, सोस्य दर्शन में पुरुष को ज्ञानस्वरूप कहने से कया तात्पययं है, कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया है, तथा जब पुरुष के लक्षण खतलाते हुए ईश्वरकृप्ण उस्ते दृष्टा, मध्यस्य, साक्षी भादि भी कहते हैं. तो कठिताई भौर भी बढ़ जाती है । यहाँ पर यदि दृष्टा तथा 'साक्षी' शब्दों का भय केवल यहं समा जाय कि पुरुष स्वमं धपने धापको धपने झापके प्रति हो प्रकाशित ररता है, धर्याद्‌ यह हदयं का ही साक्षी तषा द्रष्टा है प्रकृति रूप विषय का नहीं, तव यद्यपि वह कई कठिनाइयों से तो बच जाता है डिन्‍्तु उसका প্র वेदान्त के मत से भभेद हो जाता है तथा व्यावहारिक धान भौ मिष्या तपा विवर्तरूप सिद्ध हो जाने से सास्य की ययाय॑वादी स्‍्राधाए शिसा ही हिल जाती है। हिन्तु यदि वह यह भाने कि पुय स्वरूपतः ही विष्यो का द्रष्टा वया साक्षी है तब उसे शुद्ध, कुटरथ, भपरिणामी प्रादि कहते में कठिताई हीती है। स्पाय, मंशेपिक तथा मीमांसादि दर्शन शान को ध्रावश्यक ভব ते सकर्मक मानते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान तिरिचत रूप से किसी विषय का ही होता है । ऐसा ज्ञान जिसका कोई दिपय ने हो, विरोधाभास है । मंदि साख्य इस तक को रगीडार कर सेता है तब इसवा प्र्ष यह होगा कि पुरुष रूप श्ञान का भी कोई ने कोई दिपस सर्देव रहता है। यह विषय स्वर्य पुरुष नहीं हो सकता । साख्य के प्रनुतार মালা ঘা शेप, विषय तथा दिपयी का भेद मूलभूत है जो रूेमी पद नहीं सकता 1 ऐसी भजस्पा में एक ही पुर एक साथ जाता तथा शेय कैसे हो सबता है / यदि इस पुष्प चंतन्‍्य का विषय रवयं पुरुष न होकर प्न्य, जो केवल श्रकृति ही द्वो सकती है, हो तब प्रहृति को तो सोस्य दार्शनिक परिशामी दित्य मानते हैं। उसमे विश्प या सकूष परिशाम सद्दव होते रहते हैं तथा पुरष चंतर्य का इस विषयों के शाता होने ঘা पॉक्य में (वफ पएक हो धयं षहो सर्ता है धौर बह है पुरव का स्वर्य विधयाकार होता । झपतोीं रमकपनीददि में युरव केगली होता है, भर्पाव भपने से सगप सभी तत्त्वों से वह




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