कल्याण | Kalyan
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
72.72 MB
कुल पष्ठ :
1079
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)यनविनाशकारिणी मातर्गीति ! मैं सदा अद्वेतामूृतकी
'वाली तुम्हारा अनुसन्धान करता हूँ यहाँ अद्वेतामत-
इस प्रकार समझना चाहिये | 'दयोर्भाव: द्विता दितैव
श्ि देतश्र अद्वेतः”--अर्थात् प्रकृति
दी उमावपि” इस प्रमाणके अनुसार प्रकृति ( माया )
रुष (जीव )% ये दोनों तत्व ही देत हैं; तीसरा
पुरुषस्व्वन्यः”के अनुसार तथा “अ इति ब्रह्म» “अ
गरम मे. कर
इति भगवती. नारायणस्य प्रथमाभिधघानम”; “अकारो
वासुदेवः स्थात्” इत्यादि श्रुति-पमाणोंके अनुसार 'आ-
दब्दवाच्य ईश्वर अर्थात् चिदचिद्विदिप्ट ब्रह्म दी
है । उसकी निरन्तर वर्षा करनेवालठी भव-
भयरूप निदाघसे अभितप्त जर्नोकी भागधेयरूपा) चिदाका-
क्रोडमें क्रीडा करनेवाली प्रेमासतकादम्विनी माता गीताका
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में अनुसन्धान करता हूँ ।
सपा एएं
श्रीमगवद्वीताकी अनुबन्ध-चचा
दाशनिकसावभोम सादित्य-द्ुनायातवाय, तकंरल, न्यायरल; गोस्वामी श्रीदामोदरजी शास्त्री )
हुसिरपि श्रुतिनिकरेविं ग्यते यत्पर॑ वस्तु ।
शमिसुद्दस्सुतकान्तीभाव॑ भावयति ॥
स लेख प्रधानतया श्रीमगवद्गीतासम्बद्ध विषयपर
उखना है; परन्तु सामान्य शान बिना विशेष विघयकी
1 नहीं हो सकती; अतएव सामान्य जिज्ञासामें
स्का कया प्रयोजन हैं; उसमें कया विषय है और
नैन चाहता है ?-ये तीन प्रश्न उठते हैं । इनका उत्तर
यह है--गीताशास्त्रका मोक्ष फछ है; मोक्षलाभके
इसका विषय है और प्राणीमात्र इसको चाहते हैं ।
इन सब कारणोंसे मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है । पुरुष
तू जीव जिसको चाहता है; बच्दी पुरुषार्थ है । जीव
[तया सुख चाहता हैं; अतः सुख ही मुख्य पुरुषार्थ है ।
दो प्रकारके हैं; अनित्य और नित्य । अनित्य सुखका
काम है और नित्य सुखको मोक्ष कहते हैं । इन दोनों
कि उपाय भी चाहे जाते हैं । अर्थ और धर्म उपाय हैं;
छये उनको गौण पुरुषार्थ कहते हैं । इन दोनोंमिं धर्म
४ है और अर्थ दृ्ठ है । यही चार अर्थ, धर्म, काम और
नामक पुरुषार्थ हैं। इन चारोंमें धर्म और अर्थकी
क्षा मुख्य होनेके कारण एवं अनित्य कामकी अपेक्षा नित्य
के कारण मोक्ष ही उत्कृष्ट है; इसीसे मोध्षको परम पुरुषार्थ
ते हैं।
मोक्षके स्वरूपमें अनेक अवान्तरमेद रहनेपर भी मुख्य
भेद हैं-कुछ दार्यनिक दुःखके अत्यन्त अभावकों मोक्ष
ते हैं और कुछके मतमें नित्यसुखावासि ही मोक्ष है ।
में फिर दो भेद १) नित्यसुख-स्वरूपलाभ और
२ ) नित्यसुख-स्वरूपानुभव !
इसमें सर्वसमन्वयके सिद्धान्तकी रीतिसे प्रथमसे तो
विरोध नहीं रहता ) अप्रासंगिक दोनेके कारण इसका
विवेचन यहाँ नहीं किया जाता । द्वितीयमें रुचिभेदसे दो भेद
व्यवस्थित हैं ।
. इस फलकी प्राप्तिके उपाय भी अवान्तररूपोंसि बहुत
प्रकारके हैं; परन्तु इनमें प्रधान उपाय तीन हैं--कर्मयोग;
ज्ञानयोग और भक्तियोग । अशज्ञयोग मी उपाय है; पर वह
स्वतन्त्र नहीं है; छवणकी भाँति वह तो सर्वानुगत
दीहै।
इन तीनोंमें कर्मयोगका अनुष्ठान सबसे पहले करना
चाहिये) इसी कारणसे कर्मप्रधानवाद भी मूखयुक्त है । तथा कर्म-
के द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर शानप्रकाशोदय तथा
प्रेम-प्रभा-विकास होता है; अतएव फसे व्यवहित कारण
होनेसे कर्मका अप्राधान्यवाद भी निमूंछ नहीं है. |
ज्ञान और भक्तिमें भी प्रधानाप्रधानभावकों लेकर परस्पर
सगोत्र कलह है | परन्तु विवेक-दृष्टिस देखनेपर इस कलहका
बीज अश्ञान; दुराग्रह या दुर्वातना दी प्रतीत होते हैं |
वस्तुतः “ज्ञान” शब्दसे दो प्रकारके ज्ञान समझे जाते हैं--
प्रथम तत्वज्ञान और दूसरा तत्वज्ञानकें उपायोंका शान ।
इसी प्रकार “मक्ति शब्दसे भी दो प्रकारकी भक्ति समझनी
चाहिये-एक तो फ-मक्ति; जो प्रेमके नामसे प्रसिद्ध है
और दूसरी साधन-मक्ति; जिसके श्रवण-कीर्तनादि अनेक
मेद हैं । कार्यकारिता-श्षेत्रें इन चारोंका क्रम इस प्रकार है-
पहली श्रेणीमें उपायज्ञान: दूसरीमें साधनभक्ति; तीसरीमें
और फछरूप प्रेम-सम्पत्ति । इस अवस्थामें
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