कल्याण | Kalyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यनविनाशकारिणी मातर्गीति ! मैं सदा अद्वेतामूृतकी 'वाली तुम्हारा अनुसन्धान करता हूँ यहाँ अद्वेतामत- इस प्रकार समझना चाहिये | 'दयोर्भाव: द्विता दितैव श्ि देतश्र अद्वेतः”--अर्थात्‌ प्रकृति दी उमावपि” इस प्रमाणके अनुसार प्रकृति ( माया ) रुष (जीव )% ये दोनों तत्व ही देत हैं; तीसरा पुरुषस्व्वन्यः”के अनुसार तथा “अ इति ब्रह्म» “अ गरम मे. कर इति भगवती. नारायणस्य प्रथमाभिधघानम”; “अकारो वासुदेवः स्थात्‌” इत्यादि श्रुति-पमाणोंके अनुसार 'आ- दब्दवाच्य ईश्वर अर्थात्‌ चिदचिद्विदिप्ट ब्रह्म दी है । उसकी निरन्तर वर्षा करनेवालठी भव- भयरूप निदाघसे अभितप्त जर्नोकी भागधेयरूपा) चिदाका- क्रोडमें क्रीडा करनेवाली प्रेमासतकादम्विनी माता गीताका 5१ में अनुसन्धान करता हूँ । सपा एएं श्रीमगवद्वीताकी अनुबन्ध-चचा दाशनिकसावभोम सादित्य-द्ुनायातवाय, तकंरल, न्यायरल; गोस्वामी श्रीदामोदरजी शास्त्री ) हुसिरपि श्रुतिनिकरेविं ग्यते यत्पर॑ वस्तु । शमिसुद्दस्सुतकान्तीभाव॑ भावयति ॥ स लेख प्रधानतया श्रीमगवद्गीतासम्बद्ध विषयपर उखना है; परन्तु सामान्य शान बिना विशेष विघयकी 1 नहीं हो सकती; अतएव सामान्य जिज्ञासामें स्का कया प्रयोजन हैं; उसमें कया विषय है और नैन चाहता है ?-ये तीन प्रश्न उठते हैं । इनका उत्तर यह है--गीताशास्त्रका मोक्ष फछ है; मोक्षलाभके इसका विषय है और प्राणीमात्र इसको चाहते हैं । इन सब कारणोंसे मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है । पुरुष तू जीव जिसको चाहता है; बच्दी पुरुषार्थ है । जीव [तया सुख चाहता हैं; अतः सुख ही मुख्य पुरुषार्थ है । दो प्रकारके हैं; अनित्य और नित्य । अनित्य सुखका काम है और नित्य सुखको मोक्ष कहते हैं । इन दोनों कि उपाय भी चाहे जाते हैं । अर्थ और धर्म उपाय हैं; छये उनको गौण पुरुषार्थ कहते हैं । इन दोनोंमिं धर्म ४ है और अर्थ दृ्ठ है । यही चार अर्थ, धर्म, काम और नामक पुरुषार्थ हैं। इन चारोंमें धर्म और अर्थकी क्षा मुख्य होनेके कारण एवं अनित्य कामकी अपेक्षा नित्य के कारण मोक्ष ही उत्कृष्ट है; इसीसे मोध्षको परम पुरुषार्थ ते हैं। मोक्षके स्वरूपमें अनेक अवान्तरमेद रहनेपर भी मुख्य भेद हैं-कुछ दार्यनिक दुःखके अत्यन्त अभावकों मोक्ष ते हैं और कुछके मतमें नित्यसुखावासि ही मोक्ष है । में फिर दो भेद १) नित्यसुख-स्वरूपलाभ और २ ) नित्यसुख-स्वरूपानुभव ! इसमें सर्वसमन्वयके सिद्धान्तकी रीतिसे प्रथमसे तो विरोध नहीं रहता ) अप्रासंगिक दोनेके कारण इसका विवेचन यहाँ नहीं किया जाता । द्वितीयमें रुचिभेदसे दो भेद व्यवस्थित हैं । . इस फलकी प्राप्तिके उपाय भी अवान्तररूपोंसि बहुत प्रकारके हैं; परन्तु इनमें प्रधान उपाय तीन हैं--कर्मयोग; ज्ञानयोग और भक्तियोग । अशज्ञयोग मी उपाय है; पर वह स्वतन्त्र नहीं है; छवणकी भाँति वह तो सर्वानुगत दीहै। इन तीनोंमें कर्मयोगका अनुष्ठान सबसे पहले करना चाहिये) इसी कारणसे कर्मप्रधानवाद भी मूखयुक्त है । तथा कर्म- के द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर शानप्रकाशोदय तथा प्रेम-प्रभा-विकास होता है; अतएव फसे व्यवहित कारण होनेसे कर्मका अप्राधान्यवाद भी निमूंछ नहीं है. | ज्ञान और भक्तिमें भी प्रधानाप्रधानभावकों लेकर परस्पर सगोत्र कलह है | परन्तु विवेक-दृष्टिस देखनेपर इस कलहका बीज अश्ञान; दुराग्रह या दुर्वातना दी प्रतीत होते हैं | वस्तुतः “ज्ञान” शब्दसे दो प्रकारके ज्ञान समझे जाते हैं-- प्रथम तत्वज्ञान और दूसरा तत्वज्ञानकें उपायोंका शान । इसी प्रकार “मक्ति शब्दसे भी दो प्रकारकी भक्ति समझनी चाहिये-एक तो फ-मक्ति; जो प्रेमके नामसे प्रसिद्ध है और दूसरी साधन-मक्ति; जिसके श्रवण-कीर्तनादि अनेक मेद हैं । कार्यकारिता-श्षेत्रें इन चारोंका क्रम इस प्रकार है- पहली श्रेणीमें उपायज्ञान: दूसरीमें साधनभक्ति; तीसरीमें और फछरूप प्रेम-सम्पत्ति । इस अवस्थामें




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