ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद | Brahmachari Sheetal Prasad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
101
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about ज्योति प्रसाद जैन - Jyoti Prasad Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अज़िल , भारतीय काँग्रेस के, प्रायः सभी वाषिक ,अधिवेशनों, में वह
उपस्थित रहे । जहां जाते, यह प्रयत्व करते कि सार्वजनिक सभाओं
में उनके व्याख्यान हौ, ? अजैन जंनता भी उनकी लाभ उठा सके ।
उनके व्याख्यानों में साम्प्रदायिकता को गन्ध नहीं :होती थी। जनता के
जीवन को धार्मिक एवं नैतिक बनाने पर, उवे साद्य, सगल, सत्य एवं
अधिसा अतिष्ठित और स्वदेशप्रम से ओत--प्रोत बनाने पर वह ही अधिक
बल देते थे 1
ब्रह्मचारी जी देह-भागों से विरक्त, गृहत्यागौ बरती ये। पारि-
भाषिक दुष्टि से भले हौ बह मुनि या सषु नहीं कहूलाए । किन्तु
जनसाधरण उन्हे एक अच्छा जेन साधु मानकर ही उनका आदर
एवं भक्ति करता था । वहु भी अपने पद के लिए शास्त्र विहित चर्चा
एवं नियम संयम का पूरी दढता के साथ पत्त करते ये । जिन
धर्म एवं जितवाणी पर उनकी पूर्ण आस्था थी, किन्तु उन्होंने कभी भी
किसी अन्य धमं, पथ या सम्प्रदाय की अवमानना नहीं की । सर्व-धर्म
समभाव कै पोषण के लिए जनेत्तर घर्मो का भी उन्होने तुलनात्मक
अध्ययन किया । गुणियों के प्रति उनका असीम अनुराग था। स्व० गुरू
गोपालदास जौ बरेया का वह बड़ा आदर करते थे । स्थितिपालकों ने
अनेक वार उनका प्रबल विरोध किया, उनके कार्य में अनेक बाधाए
डाली, घमकियां दी, किस्तु ब्रह्मचारी जी को वे क्षुब्ध न कर सके,
उनके समभाव को विचलित न कर सके ।
ब्रह्मचारी जी को मान-सम्मान की चाह छ भी नहीं पाई थी।
सामाजिक अभिनन्दनो, मानपत्रों उपाधियों आदि से बह सर्देव बचते थे ।
अपने लिए उन्होंने कभी किसी से कोई चाह या मांग नहीं की, न
अपने किसी कुटुम्बी या रिश्तेदार के लिए ही, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष
रूप में भी ) अपने नाम से कभी कोई सस्था स्थापित नहीं की, कही
कहीं समाक्ष ने चाहा भी, किन्तु उन्होंने ऐसा होने ही नहीं दिया। समाज के
उस समय के प्राय्रः सभी श्रीमानों से ब्रह्मचारी जी का सम्पर्क रहा,
किन्तु उनमें से किसी को भी कभी कोई खुशामद या चापलूसौ नहीं की
उनकी प्रशं॑घ्तियां नहीं गायीं, उनके प्रभाव में आकर अपने विचारों
में परिवर्तन भी नहीं क्या, तथाथि उनका सहज आदर प्राप्त किया।
बम्बई के दानवीर सेठ माणिकचन्द जे० पी० तो उनके परम भक्त
( ११)
User Reviews
No Reviews | Add Yours...