प्राकृत विमर्श | Prakrit Vimarsh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
364
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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“प्रकृतेः संसक्ृतात् आगतम् प्राकृतम ।” 'प्राकृत--संजीवनी” में
संत्कृत को प्राकृत की योनि माना गया है-.. प्राक्ृतस्थ तु सर्वभेव
संत्कृतं योनिः ४” काव्यादर्श की प्रेमचन्द्रतकंवागीश चृत टीका में
संस्कृत के प्रकृत रूप से प्राकृत को उत्पन्न दिय, गवा है--.-“संस्कृत-
रूपाया: प्रकृतेः उत्पन्नत्वात् प्राकृतम् ।” प्राकृत-चन्द्रिका' के आधार
पर पेटर्सन ने संस्कृत को ही ग्राकृत का प्रकृत रूप माना है-.-प्रकृतिः
संस्कृतम् ( तत्र॒ भेवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् ) । प्रडमापा-चन्दिका' में
परसिंह? ने संस्कृत के परकृत रूप के विकार से प्राकृत की उत्पत्ति सिद्ध
की है-- प्रकृति: संस्कृतायाः तु विक्ृृतिः 'प्राकृती, सता 7 ध्वासुदेव” ने
प्राकृतसव॑म! में इसी मत को स्वीकार किया है| प्रसिद्ध वस्याकरण
हेमचन्द्र ने भी इसकी पुष्टि---प्रकृति: संस्कृतम॒तत्नरभवम॒ तत् झआागतम
वा प्राकृतम/ कहकर को है। “माकंण्डेयः ने प्याकृृत-सर्वस्त्र' में संस्कृत
कौ प्रकृति मानकर उसी से प्राकृत का विकास दिया है-...'प्रकृतिः
संस्कृतम् तत्रभवम् प्राकृतम् उच्यते 1“ नारायण” ने 'रसिकसवंस्व! सें
प्राकृत और अपम्र'श दोनों को ही संस्कृत के आधार पर विकसित
माना है---'संस्कृतात् प्राकृतम् इष्टस् ततोः्पश्नंशभाषाणम् । ध्यनिकः
ने पदशरूपः में प्रकृत रूप से प्राकृत का विकास और संस्कृत को
उसकी प्रकृति माना है-.-प्रकृतेः आगतम् प्राकृतम् प्रकृति: संस्कतम ॥”
(शंकर! ने 'शाकंतलम! में संरकत से विकसित पराकत को श्रेष्ठ ओर फिर
उससे, अपभ्र श का विकास दया ई--'संस्कृतात् भाकछृतम् श्रेप्ठम्
ततोष्पञ्लंदभाषणम् ।
इस प्रकार उक्त मतों से स्पष्ट होता है। कि संस्कत का ही आधार
लेकर प्राकव भाषाओं का विकास हुआ | पहले कहा ही जा चुका
है कि संस्कत को रूढ़ अर्थ में लेने से प्राकत की उक्त व्वाख्याएं
ग्रप्रामाशिक ओर असंगत ही होंगी क्योंकि प्राकत मापाओं के स्वरूप--.-
गठन को देखने से यह लिद नहीं होता | प्रकृति? का आशय स्वभाव
अथवा जनसाधारण से भी लिया जाता है। इसीलिये हरिगोविंददास
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