प्राकृत विमर्श | Prakrit Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 4 “प्रकृतेः संसक्ृतात्‌ आगतम्‌ प्राकृतम ।” 'प्राकृत--संजीवनी” में संत्कृत को प्राकृत की योनि माना गया है-.. प्राक्ृतस्थ तु सर्वभेव संत्कृतं योनिः ४” काव्यादर्श की प्रेमचन्द्रतकंवागीश चृत टीका में संस्कृत के प्रकृत रूप से प्राकृत को उत्पन्न दिय, गवा है--.-“संस्कृत- रूपाया: प्रकृतेः उत्पन्नत्वात्‌ प्राकृतम्‌ ।” प्राकृत-चन्द्रिका' के आधार पर पेटर्सन ने संस्कृत को ही ग्राकृत का प्रकृत रूप माना है-.-प्रकृतिः संस्कृतम्‌ ( तत्र॒ भेवत्वात्‌ प्राकृतं स्मृतम्‌ ) । प्रडमापा-चन्दिका' में परसिंह? ने संस्कृत के परकृत रूप के विकार से प्राकृत की उत्पत्ति सिद्ध की है-- प्रकृति: संस्कृतायाः तु विक्ृृतिः 'प्राकृती, सता 7 ध्वासुदेव” ने प्राकृतसव॑म! में इसी मत को स्वीकार किया है| प्रसिद्ध वस्याकरण हेमचन्द्र ने भी इसकी पुष्टि---प्रकृति: संस्कृतम॒तत्नरभवम॒ तत्‌ झआागतम वा प्राकृतम/ कहकर को है। “माकंण्डेयः ने प्याकृृत-सर्वस्त्र' में संस्कृत कौ प्रकृति मानकर उसी से प्राकृत का विकास दिया है-...'प्रकृतिः संस्कृतम्‌ तत्रभवम्‌ प्राकृतम्‌ उच्यते 1“ नारायण” ने 'रसिकसवंस्व! सें प्राकृत और अपम्र'श दोनों को ही संस्कृत के आधार पर विकसित माना है---'संस्कृतात्‌ प्राकृतम्‌ इष्टस्‌ ततोः्पश्नंशभाषाणम्‌ । ध्यनिकः ने पदशरूपः में प्रकृत रूप से प्राकृत का विकास और संस्कृत को उसकी प्रकृति माना है-.-प्रकृतेः आगतम्‌ प्राकृतम्‌ प्रकृति: संस्कतम ॥” (शंकर! ने 'शाकंतलम! में संरकत से विकसित पराकत को श्रेष्ठ ओर फिर उससे, अपभ्र श का विकास दया ई--'संस्कृतात्‌ भाकछृतम्‌ श्रेप्ठम्‌ ततोष्पञ्लंदभाषणम्‌ । इस प्रकार उक्त मतों से स्पष्ट होता है। कि संस्कत का ही आधार लेकर प्राकव भाषाओं का विकास हुआ | पहले कहा ही जा चुका है कि संस्कत को रूढ़ अर्थ में लेने से प्राकत की उक्त व्वाख्याएं ग्रप्रामाशिक ओर असंगत ही होंगी क्योंकि प्राकत मापाओं के स्वरूप--.- गठन को देखने से यह लिद नहीं होता | प्रकृति? का आशय स्वभाव अथवा जनसाधारण से भी लिया जाता है। इसीलिये हरिगोविंददास




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