समीचीन- धर्मशास्त्र | Sameecheen Dharam Shastra

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Sameecheen Dharam Shastra  by आचार्य जुगल किशोर मुख़्तार - Acharya Jugal Kishore Muktar

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाष्यके निर्माणकी कथा १३ ~^ +^ ~^. <^ ^^ ~ পাটি र अनीता लत ~ शक <~ লে प्रकाशनका काम फिर कुछ परिस्थितियोंके वश--खत्रासकर पुरातन जैनवाक्यसची तथा स्वयम्भुस्तोत्रादिकी भारी विस्तृत प्रस्तावनाओं आर दसरे महत्वके खोजपरण ज़रूरी लेखोंके लिखने एवं ग्रन्थोंके प्रकाशनमें प्रवृस होनेके कारण--रुक गया | सन ?६४२ के माचे मासमें निमानियाकी बीमारीसे उठकर उस कामको फिरसे हाथमें लिया गया और अनेकान्तमें 'समन्तभद्र-वचनाम्ृत” रूपसे उसके सरे अंशको देना भी प्रारम्भ करिया गया । इतनेमे ही १३ अप्रेल की वष्ट प्रांसद्ध तागा-दघंटना घटी जिसने प्राणाका दही संकट में डाल दिया था । इस दुर्घटनासे कान ओर भी खड़े होगये ओर इसलिये स्वस्थ दशामें भी भाष्यके तख्यार अंशोंको प्रकाशमें लान ল্সালিক্সা ক্যাম यथाशक्य जारी रकख़ा गया आर जिन कारिकाओंकी व्याख्या नहीं लिखी जा सकी थी उनमेंसे अनेक की मात्र अनुवादके साथ ही प्रकाशित कर दिया गया--बादको यथासमय तत्सम्बन्धी व्याख्याओंकी पूर्ति होती रही | इस तरह अनेक वित्न-वाधा््रोको पार कर यह भाष्य सन १६५३ के उत्तराद्धमे बनकर समाप्त हुआ है । और यों इसके निर्माणमें १२ वष लग गये--संकल्पके पूरा होनेमें तो २० वपेसे भी ऊपरका समय सममभिये । में तो इसे स्वामी समन्तभद्रके शब्दोंमें 'अलंध्य शक्ति भवितव्यता'का एक विधान ही समभता हूँ और साथ ही यह भी समभता हैं कि पिछली भीषण ताँगा-द्घेटनासे जो मेरा संत्राण हुआ हैं वह ऐसे सत्संकल्पोंकी पूरा करनके लिये ही हश्रा है । अतः: इस ग्रन्थरत्नको वतेमान रूपमें प्रकाशित देखकर मेरी प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है और इसके लिये में गुरुदेव स्वामी समन्तभद्रका बहुत आभारी हूँ जिनके वचनों तथा आरा- घनसे मुझ बराबर प्रकाश, थैये ओर बल मिलता रहाहे। वीरसेवामन्दिर, दिल्‍ली फाल्मुन कृष्णा द्वादशी,सं० २०११ जुगलकिशोर मुख्तार




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