पूर्णकुम्भ | Poorna Kumbha

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Poorna Kumbha by रानी चद - Rani Chadहंसकुमार तिवारी - Hanskumar Tiwari

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हंसकुमार तिवारी - Hanskumar Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उस दिन रसोईघर के दरवाजे से पीठ टेव' बर बठी मेरी वैष्णवी सखी कह रही थौ, त जीवन म क्या पाया, क्या नही पाया, पाने ते क्या होता भौर नही पाया त्तो क्या हुमा । एक दिन इस हानि-लाभ का लेखा जोखा लगाने के लिए बैठी, लेकिन नही लगा सवी । बार-बार आसुआ। वे बहाव मे सब बहू गया 1 आखिर उस हिसाब को भूलने बे सिए ही मैं एक दिन सब कुछ पीछे छोड कर निकल पडी ॥ रेलगादडी वी खिड़की पर हाथ पर सिर रक्‍्ख मैं उसी कौ बात सोच रही थी। हरिद्वार जा रही हू । अमृतकुभ मे । बडढी-दी जा रही हैं। साथ मे हैं हेम दादा । मैं भी उनके साय लग गयी । आते समय देख आई, अगना मे टहुनियां पर सेमल पलाश के कई फूल फूले हैं। अभी- तो पत्ता का झडना यत्म हुआ ! सूखी हवा के झो को से लगातार पके पतते क्षते रहे । दिन मे इन आखो झडने वा नाच देखा । रात अघेरे से ढके सेमल के नीचे पयचारी बरते हुए कानो सुनी झकार। सालभर इसी समय की आशा में दिन गिना करती हू। नीले आसमान मे झूल पडी इन काली डालाकी ओर ताकती रहती हू । दप्ते-देखते एकाएक एव दिन काली कलियो से डालें भर जाती हैं, फूल फूलना शुरू हो जाता है। बस, और देखते-देखते फूलो से पेड लद जाएगा, लाल पखुडियों के भार से झुकी हुई डालें हवा मे डोलती रहेगी। झुड वी झुड चिडिया आएगी--मैना, गगमैना, गौरैया, कोयल, कौआ। भोर होते-होते उनके क्ल-क्लरव की न पूछिए, इलाके भर मे काकली से हाट-सी लग जाती हो मानो | पीठ पर पूछ उठाए गिलहरिया डाल डाल पर दौड धूप शुरूकर देती ह । दोनो हाथो से पखदिया नोच-नोच कर एूलो के भीतर मा मधु पीती हैं। कितनी दोपहरी को सूनी खिडकी के पास की खाट पर लेटी-लेटी घ्यान से देखा फरती हैं उनका यह खेल ! चुहल वी कोई हद नही। सारे पेड पर ब्याह वाले धर की चहल पहल हो जैसे । सेमल के फूल मे कैसा कटोर-भरा मधु खोद-खोद




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