जैन धर्म प्रवेशिका भाग - १ | Jain Dharam Praveshika Bhag 1

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Jain Dharam Praveshika Bhag 1 by बाबू सूरजभानुजी वकील - Babu Surajbhanu jee Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ ७०६ [ £ |: क्रोध भान॑ माया. थ्रोर लोभ रादि अनेक भकार फी. ्रतेकः पकारे की भड़के, ओर अनेक प्रकार की इच्छ इनके अन्दर उठती रहती हैं जिससे यह जीव शान्ति रूपी अपना असली आनन्द खो कर महा व्याइुल और दुखी होते हुवे संसार में भटकते फिर रहे है, जिस 'प्रकार'अनांदि काल से बीज से दक्ष - भोर हक्त से धीन पैदा हतो चला रहा है इसंही प्रकार मान माया लोम क्रोध श्रादि.कपा्यो के करने से नीव में भी विभाव पैदा होता है शोर उस विभाव से फिर मान माया लोभ क्रोध आदि फपायें उत्पन्न होती ई, यद्‌ दी सिलसिला श्रनादिकाल से चली श्रारदा ६, इस दी चर मे पटे वे सेसारी जीव श्रपते श्रसली स्वमाव फो खोकर -महा दुख उठा रहे हैं, मान भ्र्थात्‌ अपने 'को, बढ़ा सपना, दूसरों को अपने से घटिया समझ कर घमड करना अमभिमान करना मद करना, दूसरों से ऊंचा बनने फी दूसरों को प्रपते से नीचा बनाने की इच्छ करना, मेरी वातं मे वां प लंग जाय, इज्जत मे फरक न भ्राजाय; भ किसी वात में घटिया न-समझा जाऊ ओर नीचा न्‌ देखने पाड यह उपेड़ बुन सब ही संसारी जीपों को लगी रहती है, माया अर्थाद्‌ तरह २ की चालाकी फरने की तरह २ चाल चलने फी धोखा फ्रेव देने की,. दसरों को . पेवकूफ़ बनाकर. अपना मतलद এল निफालने की तरंगें भी सब ही की उठा करती हैं मानों यह




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