आचार्य श्री गणेशीलालजी म. सा. का जीवन चरित्र | Acharya Shree Ganeshilalji Ka Jeewan Charitra

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Book Image : आचार्य श्री गणेशीलालजी म. सा. का जीवन चरित्र  - Acharya Shree Ganeshilalji Ka Jeewan Charitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है उन भहापुरुष का यहा उल्लेख आवश्यक होने से किया जा रहा है। वह हैं गर्ग नाम के आचार्य | यह गर्गाचार्य बडे ही क्रान्तिकारी थे। निर्ग्रन्थ श्रमण सस्कृति के सजग प्रहरी थे| इनको शिष्यो का लालच भी नहीं हो पाया था| शिथिलता को बरदाश्त नहीं करते थे। जब कभी भी शिष्यो मे शिथिलता का प्रवेश आता हुआ देखते तो उनको सुधारने की कोशिश करते थे। लेकिन उन्होने अनुभव किया कि ये शिष्य गलियार बैल की तरह शिथिल हो चुके हैं इनके साथ रहने से मेरी सयम-यात्रा समाधियुक्त नहीं रह सकेमी ! सख्यां की विपुलता सै शासनं की शोभा नहीं । शासन की शोभा सम्यक ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना मे सन्निहित है । वह आराधना सुचारित्री अत्पसख्या मे भी की जा सकती है। उसी म॑ समाधिभाव व निर्ग्रन्‍्थ-सस्कृति की रक्षा हे आदि करई दृष्टिकोणो को सन्मुख रख कंर दुष्ट शिष्यो का सग छोड दिया । इस आशय के भाव उत्तराध्ययन सूत्र के 27वे अध्ययन मे परिलक्षित होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र अपुड्ठदागरणा के रूप में माना जाता है जो कि भगवान महावीर ने अपने निर्वाण के पहले अर्थरूप मे फरमाया। गर्गाचार्य का समय क्या है इसका उल्लेख तो नहीं हो पाया है लेकिन इत्तना अवश्य सोचा जा सकता है कि मगवान महावीर के पहले के तीथंकरो के समय मे होना चाहिए क्योकि भगवान महावीर का शासन तो भगवान महावीर के निर्वाण कं पश्चात्‌ रहा ओर आचार्य की परम्परा के रूप मे सुध्मस्वामी का उल्लेख है । अत यह अन्य वीर्थकरो के समय के कहे जा सकते ईँ ओर उनका उल्लेख अन्तिम तीर्थकर के अन्तिम समय मे बिन पूछे होने से तीर्थकरो के आशय की जो अभिव्यक्ति मलीमात्ति स्पष्ट हो जाती है वह यह है कि निर्म्न्थ श्रमण सस्कृति मे शुद्ध आचार -विचार को महत्त्व दिया गया है नकि सख्या को ओर न आय्ार-विचार-शून्य सगटन को} मानो इसी बात का द्योतन करने के लिए गर्म नाम कं आचार्य का बिना किसी के प्रश्न ही उल्लेख किया गया है। ऐसे तो यह बात मगलपाठ के शब्दो से भी भलीभाति व्यक्त हो जाती है। जैसे कि अरिहत सरण पवज्जामि सिद्धे सरण पवज्जामि साहू सरण पवज्जामि केवली पन्‍नत धम्म सरण पवज्जामि अर्थात्‌ अरिहत सिद्ध साघु ओर धर्म की शरण वत्ताई गर्ह न कि सगठन की शरण! यदि निर्गन्य श्रमण सस्कृति मे आचार-विचार-शून्य समठन को ही महत्त्वं दिया ता तो “संघ शरण गच्छामि' इस तरह का याठ जैसा बौद्ध ग्रन्थो मे है वैसा इस मगलपाठ में भी प्रयुक्त होता। लैकिन वीतराग परम्परा में आचार-विचार-सम्पन्न सघ सगठन एव साघु-सस्था को महत्त्व दिया गया है। यह बात गर्गाचार्य के चरित्तानुवाद वर्णन से सुस्पष्ट है। [5]




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