योगायोग | Yoga Yog
श्रेणी : योग / Yoga
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20.09 MB
कुल पष्ठ :
251
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)योगायोग श्द भरत में उत्सव की मियाद समाप्त हुई भ्ौर सारा घर खाली हो गया । केकल केले के फटे पत्तों और सकोरों श्रौर कुल्हड़ों के भग्नावशेषों पर कौवों और कुत्तो का कलरव-सुखर उत्तरकांड चलने लगा । फर्राशों ने सीढ़ियाँ लगाकर भाड़ खोल लिये शामियाने उतार दिये भाड़ के टुकडे अवशिष्ट मोमबत्तियोँ प्ौर नकली फूलों के भालरों को लेकर टोले के लड़के श्रापस में छीना-भपटी करने लगे । उस भीड़ के बीच से चाँटों की ग्रावाज़ श्र रोने-चीखने का शब्द तार-स्वर में भ्रातिद्बाज़ी के राकेट की तरह जेसे झ्राकाद्ष को चीर रहा था । भ्रंत पुर के श्रॉगन से शेष बचे हुए जूठे भात और तरकारी की अ्रम्ल-गंध से सारी हवा गधा रही थी । वहाँ सर्वत्र क्लांति भ्रवसाद श्रौर मलिनता दिखाई देती थी । यह बून्यता तब श्रौर अधिक असह्य हो उठी जब मुकुन्दलाल झाज भी न लौटे । पहुँच न होने के कारण नंदरानी के धँय॑ का बॉध फटकर सहसा टुक-टरक हो गया । दीवान जी को बुलाकर वे पर्दे की झट से बोली कर्ता से कह दीजियेगा वृन्दावन में अपनी माँ के पास मुझे अभी जाना है। उनकी तबीयत ठीक नही है । दीवान जी कुछ समय तक गंजे सिर पर हाथ फेरते रहे । उसके बाद धीमी झ्रावाज में बोले माँ जी कर्ता को बतलाकर जाना ठीक रहता । खबर मिली है कि झाज या कल तक घर लौट श्रायँगे । तही सुभ्ते देर हो जायगी । तंदरानी को भी यह समाचार पहले मिल चुका है कि कर्ता झ्राज या कल तक लौट झ्रायंगे । इसीलिए उन्हे जाने की इतनी जल्दी पड़ी है । वह निद्चित रूप से जानती है कि तलिक रोने-धोने श्रौर श्रसुनय-विनय से सारा कगड़ा चुक जायगा । हर बार ऐसा ही होता रहा है । उपयुक्त दंड भ्रसमाप्त ही रह जाता है। पर इस बार इस तरह से काम नहीं चलेगा । इसीलिए दंड की व्यवस्था पहले ही से करके दंडदाता को भागना पड़ रहा है । विदा होने के ठीक एक क्षण पहले पॉव रुक गए । पलंग पर पछाड़ खाकर फफक-फफककर रोने लगीं । फिर भी जाना नही रुका । कार्तिक का महीना था दिन के प्रायः दो बजे थे । धूप तेज़ थी । रास्ते के किनारे वाले पेड़ों की मम॑ंर-ध्वनि के साथ मिलकर बीच-बीच में फटे गले से निकली हुई कोयल की कूक सुनाई देती थी । जिस रास्ते से होकर पालकी चली जा रही थी वहाँ से कच्चे धान के खेतों के उस पार नदी दिखाई देती थी । नंदरानी रह न सकीं। पालकी का दरवाजा खोलकर उस भ्रोर देखने लगीं ।
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