स्वप्रन्द्रष्ठा | Swapnadastra
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
46 MB
कुल पष्ठ :
371
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ स्वप्नद्रष्टा
“क्या शलेन्द्र ! न हिम कहीं पढ़ता; मंदाफिनी ? ना बहे ।
श्रीमद्राज सयाजीराज नगरे यह দ্র क्रिसका अरे ?!!
फिर तुरन्त उत्तर सुझा---
.._ ““विद्यार्थीनन देख निश्चय हुआ, श्री शारदा जी बसे |?
इन पंक्तियों में हास्यजनक कृत्रिमता समाई है, तो भी बहुत-से
विद्यार्थियों के हृदयों के भावों का उसमें प्रतिशब्द है ।
इस भवन में सन् १६०६ ईं० में लगभग तीन सो विद्यार्थी परीक्षा
में उत्तीण होने के हेतु से आनन्द मना रहे थे ।
उस समय बड़ोदा कालेज में विद्यार्थी पढ़ने के बदले या तो अानन्द
उड़ाते या सपने देखा करते थे । सुख्याध्यापक सवण क्लाकं को कास
करने के शोक़ के बदले विद्यार्थियों में लोकप्रिय होना अधिक अच्छा
लगता था । प्रोफेसर तापीदास काका बहुत बार तस्वूरे के गिल्लाफ-जसे
पायजासे पर दक्षिणी जूते चढ़कर गणित सिखाने का काम करते थे:
ओर विद्यार्थी समझे या नहीं इसकी अपेक्ता क्लास में कचरा तो नहीं
रह गया है, इसकी अधिक चिन्ता करते थे। सब उनको चाहते थे,
ओर वे सब विद्यार्थियों को परिवार के सदस्य के समान चाहते श्रे!
उनका ৬০০ 566, ४०एाशाए०7 प्रत्येक विद्यार्थी मज़ाक में
नकल करते हुए एक दूसरे से बोलता था। दर्शनशास्त्र की तेजस्वी
व मावनाशील प्ररणा-मूर्ति प्रोफेसर शाह दिवड्गत दो चुके थे । प्रोफेसर
मसाणी कांगा कालेज में पाण्डित्य की खान माने जाते थे ।
किन्तु जिनकी विद्वत्ता से विद्यार्थियों का गव नहीं समाता था वे
थे अंग्रेजी के प्रोफेलर घोष | कालेज के त्लिए इनकी विद्या अधिक प्रतीत
होने से क्रितने ही ब्षो से गायकवाड सरकार ने उन्हें अपने व्यक्तिगत
कार्य में रोक रखा था; पर चार-छुः मद्दीनों में वे पुनः थोड़े समय के
लिए कालेज में झा जाते थे | छोटे कद के भीचा सिर कर चलने वाले
प्रोफेसर घोष विद्यार्थियों के साथ संसर्ग नहीं रखते थे और व्यक्तिगत
लोकप्रियता की परवाह नहीं फरते थे । वे इस प्रकार के नोट्स! लिख-
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