आँख की किरकिरी | Ankh Ki Kirkiri

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Ankh Ki Kirkiri by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रंवीन्ट्र-साहित्य भाग २१-९२ महेन्द्र भी सीधा रास्ता छोड़कर इपर-उघर घूमता-हुआ बहुत देर बाद धीरे-धीरे घर पहुंचा । महेन्द्रकी मा उस समय पूड़ी उतारनेमें व्यस्त थीं । और चाची अब तक इयामबाजारसे घर नहीं लोटी थीं । महेन्द्र अकेला निजेन छतपर जाकर चटाई बिछाकर पढ़ रहा । कलकतेंकी गगनमंदी भट्टालिकाओंके माथेपर उस समय शुक्ला-सप्तमीका अर्धचन्द्र चुपचाप अपना अपूवे मायामन्त्र विकीण कर रहा था । मानें आकर जब खबर दी कि खाना तेयार है तो उसने कह यहाँ बड़ा अच्छा लग रहा है मा उठनेको जी नहीं चाहता । माने कहा तो यहीं ले आऊं न ? महेन्दने कहा अब आज में खाउँगा नहीं .- में खा जाया हूं । माने पूछा कहाँ खाने गया था ? महेखने कहा बहुत बात है पीढ़े बताऊंगा । पुत्रके इस अभूतपूर्व व्यवहारपर अभिमानिनी माताने कुछ भी नहीं कहा और वे वापस जानेको उद्यत्त हो गईं । तब तुरत अपनेको संयत करके अजुनापके साथ कहा मा मेरी थाली यहीं ले आओ । माने कहा भूख न हो तो क्या जरूरत है | इस बातपर मा-बेटोंमें कुछ देर तक रूठने-मनानेका क्रम चलता रहा भौर अन्तमें दुबारा खाने बेठना पड़ा । रात-भर ठीकसे नींद नहीं आई । वह सवेरे ही उठकर सीधा बिह्वारीके घर पहुंचा । और बोला भाई बिहारी रात-भर मैं अपने कर्तव्यके विषयमें विचार करता रहा । चाचीकी भीतरी यह इच्छा है कि मैं ही उनकी बदनौंतसे ब्याद करू- के बिहारीने कहा इस विषय्मं तो सहसा किसी नये दृष्टकोणसे विचार करने के जरूरत नहीं थी। वे तो अपनी इच्छाको नानाप्रकारसे व्यक्त कर चुकी हैं ।




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