विद्यासागर ग्रंथावली (खंड ४ ) | Vidyasagar Granthavali Part 4

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2522 2425522225522552 2 न हि कैवल्य साधनं केवलं यथाजातप्रसाधनम्‌ चेन पशुरपि साधनं त्रजेदव्ययमञ्जसा धनम्‌ ।78॥ श्रमण का परमात्मा से अनुराग किए बिना कल्याण नहीं हो सकता है । कवि ने कहा है कि जो परिग्रहों को त्यागकर, इन्द्रियों को वश में कर अपनी रत्नत्रय रूपी खेती को विशुद्ध भावं से सिंचन कते हैं, ऐसे साधुओं की मैं वन्दना करता हूं । इस प्रकार इस काव्य में अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध भावों को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है । शब्द संचय करने में कवि ने विश्वलोचन कोश का प्रयोग किया है । श्लोकों में शब्दों की कठिनता दृष्टिगोचर होती है । काव्य में अनुप्रास, श्लेष तथा यमक प्रमुखता लिए हुए हैं । क्वचित्‌, कदाचित्‌, उत्प्रेक्षायें अभिव्यंजित होती है । पद लालित्य ध्वनि तथा अर्थगौरव पदे-पदे विद्यमान है । यह ग्रन्थ आर्याहन्द में लिखा गया है । पाँच श्लोकों में मंगलाचरण है, जिसमें वर्धमान स्वामी, भद्रबाहु, कुन्दकुन्द आचार्य, स्व. गुरु आचार्य ज्ञानसागर एवं सरस्वती का स्तवन किया है । 94 श्लोकों में कवि ने श्रमणों को आध्यात्मिक दृष्टि से हेय-उपादय का उपदेश दिया है । अन्त में 100वें श्लोक में अपनी लघुता एवं 101वें श्लोक में गुरु ज्ञानसागर एवं स्वयं का नाम श्लेषात्मक ढंग से निबद्ध किया है, 6 श्लोकों में प्रशस्ति दी है, जिसमें कहा है कि ज्ञानसागर के शिष्य विद्यासागर ने विक्रम सम्वत्‌ 2031 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को यह काव्य पूर्णं किया । इस प्रकार कुल 107 छन्द इस काव्य ग्रन्थ मेँ हैँ । प्रशस्ति के पद्य मेँ छन्द भिनता भी है, अतः इन्हें ग्रन्थ कौ मूल संख्या मेँ न जोड़कर अलग से दिया है (101 + 6) मूल श्लोकों का अन्वय एवं वसन्ततिलका छन्द मेँ हिन्दी प्चानुवाद कवि ने स्वयं किया गया है। यह अनुवाद-शब्दानुवाद न होकर भावानुवाद है । यह काव्य ग्रन्थ पूर्व में कई स्थानों से प्रकाशित किया जा चुका है । निरञ्जन शतकम्‌ जैसा कि इस ग्रन्थ का नाम है वैसे ही अज्जन से रहित शुद्ध आत्म तत्त्व का वर्णन करने वाला है । इसमें कवि ने स्वयं के द्वारा स्वयं को उपदेश दिया है, क्योकि एक आदर्श आचार्य पर-कल्याण के साथ-साथ स्वयं के कल्याण में भी निहित रहते हैं | कवि भी एक सम्यक्‌ आदर्श आचार्य परमेष्ठी हैं । कवि ने संसार पदों को विपदाओं का कारण माना और निजपद को हो विपदाओं से रहित कहा हैं | यथा - परपदं ह्यपदं विपदास्यदं निपदं च निरापदम्‌ इति जगाद जनाम्जरविर्भवान्‌ हानुभरवन्‌ स्वभवान्‌ भकव्वैभवान्‌ ॥३॥ शुद्ध निरंजन स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कवि ने भगवान कौ भविति को निमित्त बनाया है, कवि ने कहा है कि भगवान कौ प्रसन मुद्रा देखने से पता लगता है कि आप के अन्दर आनन्द का सागर लहरा रहा है अत: मैनें भी इस मुद्रा को देखकर आनन्द के लिए निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर ली है । यथा -




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