सत्यामृत | Satyamrat
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
236
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about दरवारीलाल सत्यभक्त - Darvarilal Satyabhakt
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भगवती अहिंसा
[२२०
पिठ करना चयि | न्यायरक्षा के च्थितो
करना ही चाहिये पर इसलिये भी करना चाहिये
कि उस देश मे या समान में रहने के कारण
हम अनेक प्रकार'से उसके ऋणी है। इसके ढिये
वह अन्याय न करेंगी विश्वह्ित के विरुद्ध न
जायगा यही उसकी उदारता है। उदारता से
अकमण्पता या दम का को$ सम्बन्ध नहीं है ।
जो छोग अकमण्यता या द्वेप को उदारता की
ओट मे छिपाते है वे दंभी है उदारता से कोसो
दूर है। उदारता व्यवहार मे कोई अडंगा नहीं
डालती किन्तु व्यवहार के व्यापक, सुखद और
न्यायोचित बनाती है ।
जिनके जीवन मे जिस श्रेणी की बहुल्ता हे
उन्हे उसी श्रेणी में रखना चाहिये। प्रवृचि के
प्रकरण मे उन व्यक्तियों से मतलब नहीं है किन्तु
उस अरणी के काये सं मतलूब है।
त्रिविध प्रवृत्ति
इनमे से सातवीं श्रेणी पूर्णशुभ अर्थात् शुद्ध
डम या शुद्ध हे । इत्त तरह की प्रवृत्ति अर्हत् जिन
योगी बुद्ध वीतराग स्थितप्रज्ञ आदि महात्माओ की
हुआ करती है । परन्तु प्रारम्भ की जो छः श्रेणिया
है वे पूर्ण शुभ नहीं है उनके साथ थोड़ा न थोडा
अशुभ छगा ही रहता है | वे अपने स्त्राथ की
सीमा के भीतर भले ही शुभ हो पर उस सीमा के
बाहर अशुभ होती है। उदार अणी का मनुष्य मनुष्य
से प्रेम करेगा प्र मनुष्य के थोड़े से सुख क लिये
पद्यु के महान से सहान क्ट की भी पर्वाह न
रिणा, वह अधिकतम सुख का हिसाव भर जायगा
और लगायगा भी ते प्तिर्फ मनुष्यो के सुखके
विचार में अधिकतम सुख की नीति काम मे लेगा।
इस प्रकार उसके शुभ कार्य में भी अशुभ का
विष मिला रहेगा। और जब यह विष झ्रुभ से
अधिक हो जायगा तब इस प्रवृत्ति को अशुभ या
पाप ही कहेंगे |
अर्थोदार व्यक्ति राष्ट्र के लिये ग्राण भी दे
देगा पर राष्ट्र के खाद्य के लिये दूसरे राष्टू के
অন্বী करने मे भी न चुकेगा | इसी प्रकार अल्पो-
दार आदि भी अपने क्षेत्र के बाहर नीति अनीति
का विषेक भूल जति है | इस प्रकार वे भी पापी
हो जाते है |
जव को मनुष्य अपनी ख्ार्थ सीमा के
बाहर इतना पाप कर जाता है कि वह स्वार्थ सीमा
के मीतर् के पुण्य से बढ़ जाता है अथवा विश्रहित
के नियमो का उछघन कर जाता है तब वह पापी हो
जाता है। इस प्रकार जो प्रवृत्ति ध्येयदरष्टि अध्याय मे
बतढांये हुए विश्वहित के विरुद्ध रहती है बह पाप
या अशुम प्रवृत्ति है । जो इस विश्वह्तित के विरुद्ध
तो नहीं है पर जिप्त मे दृष्टि अनुदार है, प्रवत्ति
का कारण राग है, वह अशुद्ध शुम प्रवृति है ।
जिसमें राग नहीं है या सिर्फ विश्वहितोपयोगी
गुणाजुराग है, दि त्रिदा है वह इद्ध प्रवृत्ति है ।
अशुद्ध इभ को अद्ध पुण्य জীং ত্য ব্যমল্দী
यद्ध पुण्य कहना चाहिये । पाप, अड पुण्य,
आर् चुद्ध पुण्य इन तीनो के भेद को कुछ उदा-
हरणा से सष्ट करना ठीक होगा |
एक आदमी अपने राष्ट के उत्कष के लिये
दूसरे पर आक्रमण करता है उन्हे गुदम बनाता
है तो यह पाप है, एक आदमी अपने पराधीन
राष्ट् को खतन्त्र करने के लियें विजयी राष्ट पर्
आक्रमण करत है यह अशुद्ध पुण्य है और एक
आदमी अपने ही नहीं किन्तु किसी भी राष्ट को
गुढाम वनानवाछे राष्ट्र पर आक्रमण करता है
इस चि से क्रि दुनिया के समी राष्ट् खतन््रता
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