सौ अजान और एक सुजान | Sau Ajaan Aur Ek Sujaan

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Sau Ajaan Aur Ek Sujaan by श्रीदुलारेलाल भार्गव - Shridularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीसरा प्रस्ताव ६ रूपचेद था। आशा होती थी, कवाचित्‌ अपनी उम्र पर अनि से रूपचेद भी पिता क रासान गुणागर होते । किंतु इंश्वर का करतंब कुछ कहा नहीं जा सकता, २५ बष की थोड़ी ही उमर में दो पुश्र, एक कन्या छाड़ यह सुरधाम का सिधार गया। सेठ हीराचंद को यर्याप इसका बड़ा सदमा पहुँचा, फिंतु लम दुःख को अपन वैयगुण से दव्राय उन दो पोच्ों ही को निज पुत्र-समान पालन-पोषण छोर पढ़ान-लिखान लगा, ओर इतनी धन-सपत्ति पाकर जैसा विनीत भावं श्रौर नवेता पते मेथा, वेसो हन तङ्क मी हो जने का पयज्न करने कमा । तीसरा प्रस्ताव “वरुण सर्वत्र पद निधीयते”” उसी नगर में एक महापुरुष विद्धान्‌ रहते थे। दूर-दूर देश के छात्र और विद्यार्थी इनके स्थान पर पढने के लिये ठिफे राहत थे। ताम इनका शिरोमणि पमरिश्र था। गुण भें भी यह वैसे ही विड्चन्मेडज्ञीमंडन शिरोमणि के समान थे। अभ्या- पकी के काम में दूर-दूर तक कालाक्षरी के माम से प्रसिद्ध थे, अर्थाच काका अक्षर-मरात्र शास्त्र का कैसा दी दुरूह और कटि फोर भ॑ होता) ऽक्षे चे पदम देते थे । अनुपपन्न, सरीब विद्यार्थियों फ्रो, जिन्‍्ें यह परिभ्रमी, पर स्वेधा असमर्थ




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