काशी का इतिहास | Kaashi Ka Itihas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
509
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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त्स्य पुराण की एक कथा के अनुसार, जिसका विवरण श्री मोतीचन्द्र जी ने दिया है
(पु० ३३) काषी के हरिकेश यक्षने रिव कौ अखंड भक्ति करके कारी मे स्थायी रूप से असने
का वरदान प्राप्त किया । तब से उसने शिव पूजा का प्रचार और यक्ष पूजा का बहिष्कार
किया। यह कहानी सुन्दर ढंग से यह बताती है कि किस प्रकार यक्ष पूजा की पुरानी तह
को हित पूजा की मई तह ने क्रमशः ढक लिया और उसी के अनुसार काझीपुरी का घाभिक
विकास होने लगा । इसका प्रत्यक्ष फल यह हुआ कि काशी के पांसु-प्राकार या धूलकोट
के भीतर अनेक शिव-स्थानों की नींव पड़ी । ये ही वे शिवलिंग हैं जिनकी सूची काशी खंड
मे एवं लक्ष्मीषर के तीथं कत्पतर ग्रन्थ में पाई जाती हैं। राजघाट की खुदाई में
जो मिट्टी की मुहरें मिली हैं उन्होंने पहली बार कारी के प्राचीन इतिहास की रूगभग एक
सहल॒ वर्ष (२०० ई० पू० से ८०० ई० पू०) की सामग्री का उद्घाटन किया है । यह
चमत्कार जैसा ही लगता है कि पुराणों में आए हुए कुछ शिव लिंगों के अस्तित्व का समर्थन
पुरातत्त्व की सामग्री से हो रहा हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण अविमुक्तेश्वर का शिवर्छिंग
था जिसे देवदेव स्वामी भी कहते थे। वनपवं ८४।१८ मं तीथं यात्रा के प्रसंग मे इसका
स्पष्ट उल्लेख आया है -
अविमुक्तं समासाद्य तीर्थंसेवी कुरुद्ह ।
दर्शन.व्वेवदेवस्यथ मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥
अर्थात् अविमुक्त नामक स्थान मे पहुंच कर भगवान् देवदेव (मुद्रा के अनुसार देवै-
देव स्वामी) के दर्शन से यात्री अत्यधिक पुण्य छाभ करता है। इसी प्रकार गभस्तीश्वर,
श्री सारस्वत, योगेश्वर, पीतकेश्वर स्वामी, भुंगेषवर, बटुकेइबर स्वामी, कलसेश्वर, कर्दमक-
रुंद्र और श्री स्कन्दरुद्र स्वामी इन शिवलिंगों की मुहरें भी मिली है। पीतकेश्बर स्वामी
की मुद्रा पर ही अविमुक्त का नाम भी अंकित है जिससे सूचित होता हैं कि पहले की
व्यवस्था का प्रबन्ध अविमुक्त मन्दिर के साथ ही था। देवमन्दिरों की यह कथा सत्य थी ।
इसका समर्थन शुआन चुआड के यात्रा-वृत्तान्त से भी होता है जिसने काशी में ब्राह्मण-घर्म
के बीस देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। ये देवार्य धर्म के साथ साथ विद्या के भी
केन्द्र स्थान रहे होंगे ।
काशी का एक पुराना नाम श्रह्मवड्ढन' भी मिलता है। इसका अर्थ वही है
जिसे आज ज्ञानपुरी कहते हैं। यों तो जातक युग में ही काशी ने यह ख्याति प्राप्त कर
ली थी, पर इसका पूरा विकास तो गुप्तकाल में हुआ जब स्वर्ण युग की प्राणवन्त संस्कृति
में संस्कृत भाषा और साहित्य का अभूतपूवं अभ्युत्थान सामने आया । कारिका की रचना
उसी का फल था, अर्थात् उसी समय से काशी के विद्वानों में पाणिनीय व्याकरण का
पठन-पाठन गहरी जड़ पकड़ गया ।
लेकिन काशी जैसे विद्या केन्द्र ने जिस क्षेत्र में सबसे अधिक उन्नति की बह वेदों का
अध्ययनाष्यापन था । इस सम्बन्ध की जो मुहरें मिलती है बे भारतीय शिक्षा के इतिहास
मेँ बेजोड हँ । उनसे ज्ञात होता है किं यहाँ ऋग्वेद के बहुबुलचरण का बहुत बड़ा विद्याऊय
था। उस मुद्रा की रचना काह्ी के कल्पनाशील करूकारों की प्रतिभा का नमूना है । मुद्रा
पर एक आश्षम अंकित है । उसके मध्य में जटाघारी आचाये खड़े है और अपने हाथ के
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