रोटीका सवाल | Rotika Sawal

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Rotika Sawal by मार्तण्ड उपाध्याय - Martand Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हमारा धन ই कपड़ा तैयार कर छेते हैं। फोयलेकी सुव्यवस्थित खानोंमें सो खनिकों की सेहनतसे हर॑साल इतना कोयछा निकल जाता है कि दस हज़ार कुटुस्बोंकों सरंदीके दिनोर्मे काफ़ी गरसी मिल सके। हाल में ही एक जौर अद्भुत च्य देखनेमे आने र्गा है ! वद्‌ यदह कि अन्तर्राष्ट्रीय अदशषंनियोके अवसरपर छख मासमे ही शहरके शहर बस जाते हैं। उनसे राष्ट्रोके नियमित्त कार्यमें ज़रा-सी भी वाघा नहीं पढ़ती । भले ही उद्योग-धन्धों या कृपिसे--नहीं-नहीं, हसारी सारी सामाजिक व्यवस्थामें--हसारे पू्ज्ोंके परिश्रम भोर भाविष्कारोंका राम सुख्यतः मुद्दीभर लोगों को ही मिलता हो, फिर भी थह बात निविवाद है कि फोौलाद और छोहेके उपलब्ध आणियोंकी मददसे आज भी इतनी सामग्री उत्पन्न की जासकती है कि हर एक आदसीके किष सुख ओर सम्प्नताका जीवन संभव हो जाय । चस्तुतः हम অনুর হী হাই है । हमारी सम्पत्ति, हम जितनी समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा है। जितनी सम्पत्ति हमारे अधिकारसें आ छुकी है चह भी कम नहीं है। उससे बड़ा वह चन है जो हम 'सशीरनो-द्वारा पैदा कर सकते हैं। हमारा सबसे बड़ा धन वह है जो हम अपनी भूसिसे विज्ञान-हारा और कला-कौशलके ज्ञानसे उपाजन कर सकते हैं, बशतें कि इन सब साधनोंका डपयोग सबके सुखके किए क्रिया जाय । २्‌ हमारा सभ्य समाज धनवान है। फिर अधिकांश छोग गरीब क्‍यों ' हैं? साधारण जनताके लिए यह भसहाय पिसाईं क्यों है ? जब हमारे चारों भोर पूवेज्ञोंकी कमायी हुईं सम्पत्तिके ढेर रूगरे हुए हैं, और जद उत्पत्ति के इतने जबरदस्त . साधन सौजूद हैं कि कुछ घण्दे रोज मेहनत करनेसे - ही सबको निश्चित रूपसे सुख-सुविधा प्राप्त हो सकती है, तो फिर अच्छी-से-अच्छी सजदूरी पानेवाले श्रमजीवीकों भी करकी चिन्ता क्यों - वनी रहती है ?




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