आदमी का जहर | Admi Ka Jahar

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Admi Ka Jahar by लक्षमीकान्त वर्मा - Lakshmikant Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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তাহা তালি হা তাহা হাটি बाकागवाणी हैं। लीजिए অভ্র জান মাই নানক भायोजन के सन्तर्मत जरलजी का लिखा हुमा यह नाटक सुनिए टूट आदमी | [ दरवाजा सब्सटाने की ध्वलि |] जाने क॑ चके गये ह ? जानते है आजकल तकाजे वालो का ताता तगा रहता है, फिर भौ आप हं कि व गायव | आज इस सस्या कौ भीटिट्‌ हैं। कल गोप्ठी है । फला वमार है । टिर्का के घर पादी ह । कितना वरदाइत क ? करटा तक वरदाश्त करू ? [ दरयाजा खटसटाने को ध्वनि ] कौन है ? बोलते वयो मही ”? आधी रात को खट-खट लगा रखा है। कह तो दिया महिमजी का कुछ ठिकाना नहीं कब आबव, [ दरवाजा स्योरते हए ] जरे यह्‌ तो आपी रै, आन दूर्तनी जल्दी ! मैं ने तो तय कर लिया था कि आज दरवाज़ा-नहो सोटेंगी । श्रम तुम्हारे तय करने से वया होता हैं? मेरी किस्मत तो तेज़ हैं, जानती हो महिम फो किस्मत जहाँ जोर मानो में खराब हैं. ब्रहाँ एस माने मे तेज़ भी । एऐ भगवान्‌ । कहाँ है इन की किस्मत जो तेज होगी? ` ` भगयान्‌ देचारे को कोस रहो हो ! कोयो, ठोक हो हैं। भई, मैं तो विसी वो भी कोसने फी स्थिति में नही हूँ । भगवान ने तो भें साप न्याय ही किया है ! हाँ, अन्याय तुम्हारे साथ हुआ है । गर्म षे साय एस मानी में कोरः अन्याय नही हुआ हूँ । शाप वा मतर्द ९ | गये एएि, मेरा भाग्य दो दश हो अच्छा या हर हालत में 3८ण धा जे तम्तरी-#ंदो परी मिल गयो। रहो तम्हारो ५५




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