दीप शिखा | Deep Shikha

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Deep Shikha by महादेवी वर्मा - Mahadevi Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से खरा या खोदा कह सकें । कपटी से कपटी लूठेरा भी अपने साथियों के साथ जितना सच्चा है उसे देखकर महान सत्यवादी भी लज्जित हो सकता है | कठोर से कठोर अत्याचारी भी अपनी संतान के प्रति इतना कोमल है कि कोई भावक भी उसकी तुलता में न ठहरेगा। उद्धत से उडत वर्वर भी अपने माता पिताक सामने इतना विनत मिलता ह कि उसे नम्र शिष्य की संज्ञा देने की इच्छा होती है । सारांश यह कि जीवन के एक छोर से दूसरे छोर तक जो, एक स्थिति में रह सके ऐसा जीवित ` मनुष्य संमव ही नही, अतः एकान्त उपयोग की कल्पना ही सहज ह । जिस चडे हुए धनुष की प्रत्यज्वा कभी नदीं उतरती वह लक्ष्यवेघ के काम का नहीं रहता । जो नेत्र एक भाव में स्थिर हैं, जो ओंठ एक मुद्रा में जड़ हें, जो जंग एक स्थिति मे जचक हैं, वे चित्र या मूर्ति में ही अंकित रह सकते हैं । जीवन की गतिशीलता में विश्वास कर लेने पर मनृष्य की असंख्य परिस्थितियों और विविध आवश्यकताओं में विश्वास करना बनिवार्य हो उठता हैं और अभाव की विविधता से उपयोग की वहुरूपता एक अविच्छित्न संबंध में बँधी है। यह सत्य हूँ कि जीवन में किसी जावश्यकता का अनुभव नित्य होता रहता हं ओर किसी का यदा-कदा; परन्तु निरंतर अनुभूत जभावो की पूति ही पूर्ति है और जिनका अनुभव ऐसा नियमित नहीं वे अभाव ही नहीं ऐसी घारणा भ्गन्तिपूर्ण हैं । वमी कमी एकरस अनेकः वर्षो' की तुलना में सहानभूति स्नेह, सख दुःख दे कू क्षण कितने मूल्यवान ठहरतें हैँ इसे कौन नदी जानता ! अनेक वार, व्यवित कै जीवन मेँ एक छन्द, एक चित्र या एका घटता ने अभूतपूर्व परिवर्तत सम्भव कर दिया है। वारण स्पष्ट हैँ । जब कवि, दित्रकार यथा संयोग के मार्मिक सत्य , उस व्यक्ति को, एवः क्षणिक कोम मानसिक स्थिति में, छ पाया तब वे क्षण अनन्त कोमलता नौर कर्णा के सौन्दर्य-द्वार खोलने में समर्थ हो सके । ऐसे बुछ क्षण यूगों से अधिक मूल्यवान अत: --! (--




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