अभिधान राजेन्द्र [भाग 1] | Abhidhan Rajendra [Bhag 1]
श्रेणी : हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
101 MB
कुल पष्ठ :
1053
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी - Vijayrajendra surishwarji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ४)
ओर गच्छ क मर्यादा सिखाना ”। इस शुज्न आक्ा को सुनकर प० रक्षविजयजी' ने सा-
उ_जलिबन्ध होकर तह त्ति' कहा। फिर श्रीपूज्यजी महाराज ने ग्जियधरणेन्द्रसूरिजी से कदा
कि- तुम रल्विजय पन्यास के पास पढ़ना ओर यह जिस मर्यादा से चलने को करट उसी
तरह चलना ` । धरणन्छसृरिजी न न एस आज्ञा को शिगंघाय माना |
मदाराज श्रं) देवन्छसृरिजी ने तो चारों आहार का त्याग कर शहर 'राधनपुर' में श्रनशन
किया ओर समा घिपृवक कालम हीने में काल किया । पीछे से पटाधीड “श्री धरणन्छसुरिजीः
ने श्रीरत्नविजयजी' पन््यास को बुलान के लिये एक रुक्का लिखा कि पेस्तर 'श्रीखन्तिविज-
यजी' ने खबटकर उदयपुर राणाजी के पास से ' श्रीदवन्दसू रिजो ' महाराज को पालखी
प्रमुख शिरोपाव बक्साया था उसी प्रकार तुम को जी चित है कि' सिद्ध विजयजी' से बन्द
हुआ जाधपुर ओर बीकानेर नरेशों की तरफ स छड़ी दुशाल्ला प्रमुख शिरोपाव को खे-
वटकर फिर शरू कराओ, एस रुके को बॉचकर “श्री प्रमोद विजयर्जी' महाराज ने कहा कि-
“सूचिप्रवेश मुशल्प्रवेशः” यद्द ल्लाकोक्ति बहुत सत्य हे,कयों कि श्री ढीरविजय सूरिजी!'
महाराज की उपंदशमय वचनों को सुनकर दिल्लीपति बादशाह कच्चर अत्यन्त हृषिंत
हुआ ओर कहने क्षमा कि---“ हे प्रजा ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्व॒जनादि में तो समत्व
रहित हें इसलिये आपको साना चौँठी दना ता ठीक नहीं ?, परन्तु मरे मकान में जेन
मजद्व की प्राचीन ९ बहुत पुस्तक दसा आप लीजिये खोर मुके कृतार्थ करिये ”। इस
प्रकार वादशाह का बहुत आग्रह देख 'हीर विजय स॒रिज्ञी' न खन तमाम पुस्तकों को आगरा
नगर के झानज़णमार में स्थापन किया। फिर आरूम्बर सहित जपाश्रय में आकर बादशाह
के साथ अनेक धर्मगाष्ठी की; उससे प्रसन्न हो बत्र, चामर, पालखी वंगेरह बहु माना
श्री दीर विजय सरिजी' के गाड। निय चल्लान की अज्ञा अपने नोकरों का दी। तब द्वीर वि-
जय सूरिजी न कहा कि हम लोग जजाल स २ट्त हें इसस हमार आग यह तृफाण उचित
नहीं है । बादशाह न विनय पृवक कहा कि- हे प्रतो ! आप तो निस्प्ट् हं परन्तु मेरी जक्ति है
सो आपके निस्पट्पन में कुछ दाष लगन का संभव नहीं हे'। उस समय बादशाह का अत्य-
न्त आग्रह देख श्रींसघन विनती की कि-स्वामी ! यह ता जिनशासन की शोजा ओर
बादशाह की भक्ति हे इसलिये आपके आगे चलने में कुछ अटकाव नी हे | गरुजी ने
जी झव्य, कत्र,काल, जाव की अपका विचार मोन धारण कर लिया। बस उसी दिन स श्री-
पुञ्यों के खगे दोनातरीके पालख छस्) प्रमुख चलना शुरू हुआ । “ श्री व्रिजयरत्न
सूरज] ” महाराज तक तो कोई खचा्यं पाली मे न वेव, परन्तु त्धुकमासृरिजी '
बृद्धावस्था होने से अपने शिथिल्लाचारी साधुओं की प्ररणा होने पर बेठन लगे। इतनी रीति
कायम रक्ख। कि गोम मे आतत समय पालख स जलर जाने थ.तदनन्तर 'दयामूरिजी ' तो
गाँव नगर में ज्ञी बेठने लगे। इस तरह क्रमशः धीर श शिथिलाचार की प्रद्नत्ति चलते चलते
अत्यन्त शिथिक्ष होगये क्योंकि पस्तर तो का६ राजा बगेरद् प्रसन्न द्वो झ्राम नगर क्षेत्रादि
User Reviews
No Reviews | Add Yours...