अभिधान राजेन्द्र [भाग 1] | Abhidhan Rajendra [Bhag 1]

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Avidhan Rajendra [Bhag 1] by विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी - Vijayrajendra surishwarji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४) ओर गच्छ क मर्यादा सिखाना ”। इस शुज्न आक्ा को सुनकर प० रक्षविजयजी' ने सा- उ_जलिबन्ध होकर तह त्ति' कहा। फिर श्रीपूज्यजी महाराज ने ग्जियधरणेन्द्रसूरिजी से कदा कि- तुम रल्विजय पन्यास के पास पढ़ना ओर यह जिस मर्यादा से चलने को करट उसी तरह चलना ` । धरणन्छसृरिजी न न एस आज्ञा को शिगंघाय माना | मदाराज श्रं) देवन्छसृरिजी ने तो चारों आहार का त्याग कर शहर 'राधनपुर' में श्रनशन किया ओर समा घिपृवक कालम हीने में काल किया । पीछे से पटाधीड “श्री धरणन्छसुरिजीः ने श्रीरत्नविजयजी' पन्‍्यास को बुलान के लिये एक रुक्का लिखा कि पेस्तर 'श्रीखन्तिविज- यजी' ने खबटकर उदयपुर राणाजी के पास से ' श्रीदवन्दसू रिजो ' महाराज को पालखी प्रमुख शिरोपाव बक्साया था उसी प्रकार तुम को जी चित है कि' सिद्ध विजयजी' से बन्द हुआ जाधपुर ओर बीकानेर नरेशों की तरफ स छड़ी दुशाल्ला प्रमुख शिरोपाव को खे- वटकर फिर शरू कराओ, एस रुके को बॉचकर “श्री प्रमोद विजयर्जी' महाराज ने कहा कि- “सूचिप्रवेश मुशल्प्रवेशः” यद्द ल्लाकोक्ति बहुत सत्य हे,कयों कि श्री ढीरविजय सूरिजी!' महाराज की उपंदशमय वचनों को सुनकर दिल्लीपति बादशाह कच्चर अत्यन्त हृषिंत हुआ ओर कहने क्षमा कि---“ हे प्रजा ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्व॒जनादि में तो समत्व रहित हें इसलिये आपको साना चौँठी दना ता ठीक नहीं ?, परन्तु मरे मकान में जेन मजद्व की प्राचीन ९ बहुत पुस्तक दसा आप लीजिये खोर मुके कृतार्थ करिये ”। इस प्रकार वादशाह का बहुत आग्रह देख 'हीर विजय स॒रिज्ञी' न खन तमाम पुस्तकों को आगरा नगर के झानज़णमार में स्थापन किया। फिर आरूम्बर सहित जपाश्रय में आकर बादशाह के साथ अनेक धर्मगाष्ठी की; उससे प्रसन्न हो बत्र, चामर, पालखी वंगेरह बहु माना श्री दीर विजय सरिजी' के गाड। निय चल्लान की अज्ञा अपने नोकरों का दी। तब द्वीर वि- जय सूरिजी न कहा कि हम लोग जजाल स २ट्त हें इसस हमार आग यह तृफाण उचित नहीं है । बादशाह न विनय पृवक कहा कि- हे प्रतो ! आप तो निस्प्ट्‌ हं परन्तु मेरी जक्ति है सो आपके निस्पट्पन में कुछ दाष लगन का संभव नहीं हे'। उस समय बादशाह का अत्य- न्त आग्रह देख श्रींसघन विनती की कि-स्वामी ! यह ता जिनशासन की शोजा ओर बादशाह की भक्ति हे इसलिये आपके आगे चलने में कुछ अटकाव नी हे | गरुजी ने जी झव्य, कत्र,काल, जाव की अपका विचार मोन धारण कर लिया। बस उसी दिन स श्री- पुञ्यों के खगे दोनातरीके पालख छस्‌) प्रमुख चलना शुरू हुआ । “ श्री व्रिजयरत्न सूरज] ” महाराज तक तो कोई खचा्यं पाली मे न वेव, परन्तु त्धुकमासृरिजी ' बृद्धावस्था होने से अपने शिथिल्लाचारी साधुओं की प्ररणा होने पर बेठन लगे। इतनी रीति कायम रक्ख। कि गोम मे आतत समय पालख स जलर जाने थ.तदनन्तर 'दयामूरिजी ' तो गाँव नगर में ज्ञी बेठने लगे। इस तरह क्रमशः धीर श शिथिलाचार की प्रद्नत्ति चलते चलते अत्यन्त शिथिक्ष होगये क्‍योंकि पस्तर तो का६ राजा बगेरद्‌ प्रसन्न द्वो झ्राम नगर क्षेत्रादि




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