धर्म दर्शन | Dharm Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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री घम्में-दशंन दाशंनिक दृष्टि से रामानुज ईश्वर के मस्तित्व में प्रस्तुत युक्तियों को निराधार मानते हैं। उनके लिये ईश्वर का अस्तित्व केवल श्रुति के ही भाधार पर स्थापित किया जा सकता है। श्रुति आस्था का विपय है गौर इसे ताकिक दृष्ट्किण से असंतोषजनक आधार साना जायगा ।. अतः दाशंनिक रीति के अनुसार रामाचुज को भी ईश्वर-दार्शनिक नहीं कहां जा सकता हैं । मध्ययुग के वाद हिन्दुत्व में ईश्वरवाद ने जड़ पकड़ा है भोर इसके भी मनेक दाशंनिक कारण बताये जा सकते हैं। परन्तु इस लेख के प्रसंग में मेरा यह विपथ नहीं है । मैं बताना चाहता हूँ कि चघिज्ञान तकनीकी तथा लोद्योगीकरण के साथ ऐहिकता वढ़ती जायगी ।. जीवन का कोई ऐसा शोत्र नहीं रह जायगा जहाँ पारलौकिक परमात्मा की नावश्यकता मनुभुत होगी ।. सुखा बाढ़ संक्रामक रोग तथा सामाजिक दुष्य॑वस्था इत्यादि के लिये ईश्वर की शायद ही अब लोगों को आवश्यकता महसूस होती है 1 यहाँ तक की सृत्यु-भय के प्रसंग में भी अव लोग ईश्वर की दुहदाई नहीं देते है क्योंकि मृत्यु अति साघारण घटना हो गई है। यही कारण है कि ईश्वर व्यक्तियों की भाँति पाइचात्य भारतीयों के जीवन से भी ओझल होता जायगा आर उसके स्थास पर मानवत्तावाद समाजवाद ऐहिकतावाद तथा बिज्ञानवाद के साथ जड़वाद भी जड़ पकड़ता जायगा ।. क्या सानवतावाद समाजवाद इत्यादि को घर्मे-चितन का अस्तिम निचोड़ समझा जाय ? विज्ञान तकनीकी तथा भौद्योगीकरण का अभ्यर्थन है कि लोगों की गास्था सानवतावाद समाजवाद तथा ऐह्कितावाद में बढ़ती जाय ।. समाज- वाद केवल सभी व्यक्तियों को नौकरी देकर जीविका का साधन ही नहीं प्रस्तुत करता है बल्कि अवकाश को दिल वहलाने के मनेक साधनों के द्वारा मनोरंजनपूर्ण भी करने का प्रयास करता है 1 समाजवादी देशों में कोई भी व्यक्ति मवेक प्रकार की कलाओं साहित्य नाव्य चिन्नकारी कीड़ा इत्यादि के द्वारा अपने अवकाश को बिता सकता है । प्रत्येक ब्यक्ति समाज-कायें में अपने को वाह्यीकृत कर अपने व्यक्तित्व को पुर्ण करने .का अवसर भाप्त करता है पर क्या व्यक्ति आरत्मदूर्णता सामाजिक कार्यों सामोद- श्रमोद मनोरंजन आदि द्वारा प्राप्त कर सकता है ? क्या कोई भी व्यवित्त कह सकता है कि जीवन का परम लक्ष्य यही है कि समाज-सेवाओों में निरत रह कर वह अपने जीवन को विता दे ? इसमें संदेह नहीं कि अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो जीवन को सार्थेक मानने के लिये लोक-ह्िताय लोक-सुखाय




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