तुलसी शब्दसागर | Tulsi Shabdsagar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
42 MB
कुल पष्ठ :
494
श्रेणी :
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No Information available about पं. हरगोविंद तिवारी - Pt. Hargovind Tiwari
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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श्रधी-(सं०)-पापी, अधर्मौ । उस पाले पोषे तोषे
स्रालसी अमागी अघी 1 (विं० २५३)
्रचंचल-(सं )-चचलता रहितः स्थिर; शांत । उ० भष
विलोचन चारु अच॑चल । (सा० १।२३०।२)
अरचंभव-(खं° असंभव)-यचभा, आश्चर्यं 1 -उ० सुर सुनि
सहि श्रचभव माना 1 (मा० &।७१।४)
स्रचंभा-्रार्चय; श्रचरज ।
ग्रचइ-(सं° श्राचमन)-आचमन करके, पी करके । उ० पैठि
विचर मिलि तापसिदहि, अचद पानि, फलु खाद् । (प्र०
६1७1३) ्रचर्वेत-आचमन करते ही पीते ही । उ० जो
झचवूत चूप सातहिं तेई । (मा ० रा२३१।४) अचवै-झाच-
मन करे ।
अचगरि-(£?)-१ चपलता, नटखटी, शरारत, अत्याचार ।
उ० १. जो लरिका क अचगरि करही । (सा ० १।२७७२)
सरचर-(सं०)-जो चल न सके; स्थावरः जड, अचल । उ०
पमरचर-चर-रूप हरि सचंगत॒स्व॑ंदा बसत, दति वासना
धूप दीजै । रथ ४७
अचरज-(स ० ) अचंभा, तझज्जुव । उ० बहुरिं
कहु करनायतन कीन्ह जो अचरज राम। (मा० १।११०)
्चरजु-दे° (अचरजः ! उ० आजु हमदहि बड श्रचरजु
लागा । (मा० २।३८१)
श्रजल-(सं०)-१ पहाड़, जो न चले, स्थिर; २. चिरस्थायी,
सव दिन रहनेवाला, खड; २ आवागमन से सुक्त, » स्थिर-
बुद्धि । उ० १ भरत की कुसल अचल स्यायो चलि कै ।
(क० ६।६९) २. रघुपति-पद परम प्रेम तुलसी यह अचल
तेम! (वि० \ ३ हो अचल जिमि जिद हरि पाई ।
मा० ७।१४।४) ४ अचल अकिचन सुचि सुखधासा ।
ध २।४९।४) श्रचलच्रहेरी-अचूक निशाना लगाने-
वाला शिकारी । उ० चिन्रकूट जन॒ अचलग्रहेरी । (मा०
२।१३३।२) ्रचलयुता-(सं °)-पवंत की लडकी, पावती ।
उ० अचल-सुता-सन-अचल बयार कि डोलद् १ (पा० ६५)
श्रजल।-(सं°)-प्रथ्वी ।
ग्रजलयु-दै° “अचलः । उ० उचके उचकिं चारि श्रंगुल अचल
गो । (क० ४।१)
्चानक-सदसा, अकस्मात्, बिना पूर्व सूचना के । उ०
तुलसी कवि तून, धरे धु वान; श्रचानक दीटि परी तिर-
छोहें । (क० २1२१)
अचार-(सं० आचार)-१ आचार; आचरण, व्यवहार;
२ धर्म-व्यवहार, ३ तरीका । उ 9 स्वारथ-सहित सनेह
सब, रुचि-अनुदरत अचार ) (दो० श्४८) २. जेमद्-
मार विंकार भरे ते अचार-विंचार समीप न जाहीं । (क०
७६४) आचारवि चार-(सं ० छाचार-विचार)-इन दो शब्दों
का आज भी एक साथ प्रयोग मिलता है पर अथे वही होता
है जो 'झाचार' का । घार्मिक कृत्य, शौच, पूजा-पाठ इत्यादि ।
प्रचारा-दे° “अचार । उ० १ शरस अष्ट अचारा मा
संसारा धं सुनिश्च नहिं काना । (मा० १।१८द। दं 9)
शछ्चाङू-दे° श्चार' । उ० २. दुह कुल गुर सब कीन्द
झचारू । (मा ० १।२२३।४)
श्रचिंत (१)-(सं०)-निर्श्चित, चिता रहित ।
चिंत (२)-(सं० अचित्य)- दे० “झचित्य' ।
२
[ अ्रघी-श्रजगर
ध . जिसका चितन संभव न हो । २. श्रतुल;
३. चिता रहित, ४. आशा से अधिक, ९. श्रकस्मात् ।
ग्रचेत-(सं०) १. अन्तात, २. बेसुध, संादीन, ३. व्याकुल,
४. मूख, अज्ञानी, बेसमक,; £ अचेतन) जड़ । उ० 9
रावन भाद् जगाद तव; कटा प्रसंगु अचेत । ८( प्र
७।१) ३. जदि चिप्र गुर चरन प्रथु चले करि सबहि
प्रचेत । (मा० १।७६) ४, ससुफी नहि तसि बालपन तव
अति रदेडं अचेत । (मा० १।३० क) *. छोटे बड़े जीव
जेते चेतन अचेत हैँ । (ह° २२)
अचेता-दे० “अचेतः । उ०२ चले जाहि सब लोग अचेता ।
(मां० २।३६२०।४)
तच्छ-(सं० अक्त)-रावण का पुत्र, अक्षयकुमार । उ०
श्रच्छु-विमर्दन कानन-भान दसानन श्रानन भान निहारो।
(द० 9६)
अच्छकुमारा-(सं० अक्षयकुमार)-रावण का पुत्र अक्तय+
कुमार । उ० पुनि पठ्यड तेहिं अच्छकमारा । (मा ०४।
१८।४
ग्रच्छत-(खं° अक्तत)-अक्षत, चावल | जो क्षत न हो ।
उ० अच्छुत रंकुर लोचन लाजा । (मा० १।३४६।३)
श्रच्छम-(सं° अक्तम)-असमथं, अयोग्य; शक्तिहीन । उ
सवदि समरथहि सुखद भिय; श्रच्छुम प्रिय दहितकारि ।
(दो° ७४)
द्रच्छर-(सं०कतर)-१. त्तर, क; ख; ग रादि, २. जिखकां
नाशन दो । उ० १. द्वादस अच्छर मन्न पुनि जपि सहित
झन्नुराग । हल १1१४३)
तच्युत-(सं०) १. जो गिरा न हो, २९ ढ़, अटल, ३
अविनाशी, ४ विष्ण और उनके झवतारों का नाम ।
उ० ३ तद सर्वज्ञ यन्ञेंश थच्युत, विभो । (विं १०)
अछत-(सं० अक्षत)-१. क्तत, चावल, रे.जो टयम
हो, पूरण, २ रहते हुए; उपस्थिति में । उ० ३. तुम्हदि
छत को बरने पारा । (सा० १२७४३)
अछोग-एसं० अक्षोम)-गंभीर; शांत, तोभ-रहित, ग्लॉनिं-
शून्य ।
अछोमा-दे० “अ्रछोभ” । उ० बीर ्रती तुम्ह घीर अछो भा ।
(मा० १।२७४1४)
अ्रज-(सं °)-१. श्जन्मा, जन्मरहित, २. बद्या, २. विष्णु,
४ शिव, £. कामदेव) ६ दशरथ कं पिता का नाम; ७.
चकरा; ८ माया, 8. रोहिणी नक्त, १०. मेघ । उ० 9
अकल निर्पाधि निरगुन निरंजन ब्रह्म कर्म-पथमेक्मज
निविकारं । (वि० १०) २. करता को अज जग॑त को;
भरता को हरि जान। (ख० २७३) ४. चंद्रसेखर सूल-
पानि हर अनघ अज अमित अविछिन्न बूपसेपगासी । (वि ०
४६) ७ तदपि न तजत स्वान श्रज खर ज्यो फिरत विषय
अनुरागे । (वि० १९७) ग्रजघामा-(सं° अजधाम)-द्य-
लोक । उ० पद् पाताल सीस अजधामा । (मा० ६।१९।१)
उअजहि-झअज को, ब्रह्मा को । उ० मसकहि करद् विरंचि
प्रभु अजहि मसक ते दीन ! (मा० ७१२२ ख)
प्रजगर-(सं०)-१ एकं प्रकार का बहुत मोटा सप, २.
झालसी ्रादमी 1 उ० १, बैठ रदसि अजगर दव पापी ।
(मा० ७१०७४)
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