तुलसी शब्दसागर | Tulsi Shabdsagar

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Tulsi Shabdsagar  by पं. हरगोविंद तिवारी - Pt. Hargovind Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ | श्रधी-(सं०)-पापी, अधर्मौ । उस पाले पोषे तोषे स्रालसी अमागी अघी 1 (विं० २५३) ्रचंचल-(सं )-चचलता रहितः स्थिर; शांत । उ० भष विलोचन चारु अच॑चल । (सा० १।२३०।२) अरचंभव-(खं° असंभव)-यचभा, आश्चर्यं 1 -उ० सुर सुनि सहि श्रचभव माना 1 (मा० &।७१।४) स्रचंभा-्रार्चय; श्रचरज । ग्रचइ-(सं° श्राचमन)-आचमन करके, पी करके । उ० पैठि विचर मिलि तापसिदहि, अचद पानि, फलु खाद्‌ । (प्र० ६1७1३) ्रचर्वेत-आचमन करते ही पीते ही । उ० जो झचवूत चूप सातहिं तेई । (मा ० रा२३१।४) अचवै-झाच- मन करे । अचगरि-(£?)-१ चपलता, नटखटी, शरारत, अत्याचार । उ० १. जो लरिका क अचगरि करही । (सा ० १।२७७२) सरचर-(सं०)-जो चल न सके; स्थावरः जड, अचल । उ० पमरचर-चर-रूप हरि सचंगत॒स्व॑ंदा बसत, दति वासना धूप दीजै । रथ ४७ अचरज-(स ० ) अचंभा, तझज्जुव । उ० बहुरिं कहु करनायतन कीन्ह जो अचरज राम। (मा० १।११०) ्चरजु-दे° (अचरजः ! उ० आजु हमदहि बड श्रचरजु लागा । (मा० २।३८१) श्रजल-(सं०)-१ पहाड़, जो न चले, स्थिर; २. चिरस्थायी, सव दिन रहनेवाला, खड; २ आवागमन से सुक्त, » स्थिर- बुद्धि । उ० १ भरत की कुसल अचल स्यायो चलि कै । (क० ६।६९) २. रघुपति-पद परम प्रेम तुलसी यह अचल तेम! (वि० \ ३ हो अचल जिमि जिद हरि पाई । मा० ७।१४।४) ४ अचल अकिचन सुचि सुखधासा । ध २।४९।४) श्रचलच्रहेरी-अचूक निशाना लगाने- वाला शिकारी । उ० चिन्रकूट जन॒ अचलग्रहेरी । (मा० २।१३३।२) ्रचलयुता-(सं °)-पवंत की लडकी, पावती । उ० अचल-सुता-सन-अचल बयार कि डोलद्‌ १ (पा० ६५) श्रजल।-(सं°)-प्रथ्वी । ग्रजलयु-दै° “अचलः । उ० उचके उचकिं चारि श्रंगुल अचल गो । (क० ४।१) ्चानक-सदसा, अकस्मात्‌, बिना पूर्व सूचना के । उ० तुलसी कवि तून, धरे धु वान; श्रचानक दीटि परी तिर- छोहें । (क० २1२१) अचार-(सं० आचार)-१ आचार; आचरण, व्यवहार; २ धर्म-व्यवहार, ३ तरीका । उ 9 स्वारथ-सहित सनेह सब, रुचि-अनुदरत अचार ) (दो० श्४८) २. जेमद्‌- मार विंकार भरे ते अचार-विंचार समीप न जाहीं । (क० ७६४) आचारवि चार-(सं ० छाचार-विचार)-इन दो शब्दों का आज भी एक साथ प्रयोग मिलता है पर अथे वही होता है जो 'झाचार' का । घार्मिक कृत्य, शौच, पूजा-पाठ इत्यादि । प्रचारा-दे° “अचार । उ० १ शरस अष्ट अचारा मा संसारा धं सुनिश्च नहिं काना । (मा० १।१८द। दं 9) शछ्चाङू-दे° श्चार' । उ० २. दुह कुल गुर सब कीन्द झचारू । (मा ० १।२२३।४) श्रचिंत (१)-(सं०)-निर्श्चित, चिता रहित । चिंत (२)-(सं० अचित्य)- दे० “झचित्य' । २ [ अ्रघी-श्रजगर ध . जिसका चितन संभव न हो । २. श्रतुल; ३. चिता रहित, ४. आशा से अधिक, ९. श्रकस्मात्‌ । ग्रचेत-(सं०) १. अन्तात, २. बेसुध, संादीन, ३. व्याकुल, ४. मूख, अज्ञानी, बेसमक,; £ अचेतन) जड़ । उ० 9 रावन भाद्‌ जगाद तव; कटा प्रसंगु अचेत । ८( प्र ७।१) ३. जदि चिप्र गुर चरन प्रथु चले करि सबहि प्रचेत । (मा० १।७६) ४, ससुफी नहि तसि बालपन तव अति रदेडं अचेत । (मा० १।३० क) *. छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैँ । (ह° २२) अचेता-दे० “अचेतः । उ०२ चले जाहि सब लोग अचेता । (मां० २।३६२०।४) तच्छ-(सं० अक्त)-रावण का पुत्र, अक्षयकुमार । उ० श्रच्छु-विमर्दन कानन-भान दसानन श्रानन भान निहारो। (द० 9६) अच्छकुमारा-(सं० अक्षयकुमार)-रावण का पुत्र अक्तय+ कुमार । उ० पुनि पठ्यड तेहिं अच्छकमारा । (मा ०४। १८।४ ग्रच्छत-(खं° अक्तत)-अक्षत, चावल | जो क्षत न हो । उ० अच्छुत रंकुर लोचन लाजा । (मा० १।३४६।३) श्रच्छम-(सं° अक्तम)-असमथं, अयोग्य; शक्तिहीन । उ सवदि समरथहि सुखद भिय; श्रच्छुम प्रिय दहितकारि । (दो° ७४) द्रच्छर-(सं०कतर)-१. त्तर, क; ख; ग रादि, २. जिखकां नाशन दो । उ० १. द्वादस अच्छर मन्न पुनि जपि सहित झन्नुराग । हल १1१४३) तच्युत-(सं०) १. जो गिरा न हो, २९ ढ़, अटल, ३ अविनाशी, ४ विष्ण और उनके झवतारों का नाम । उ० ३ तद सर्वज्ञ यन्ञेंश थच्युत, विभो । (विं १०) अछत-(सं० अक्षत)-१. क्तत, चावल, रे.जो टयम हो, पूरण, २ रहते हुए; उपस्थिति में । उ० ३. तुम्हदि छत को बरने पारा । (सा० १२७४३) अछोग-एसं० अक्षोम)-गंभीर; शांत, तोभ-रहित, ग्लॉनिं- शून्य । अछोमा-दे० “अ्रछोभ” । उ० बीर ्रती तुम्ह घीर अछो भा । (मा० १।२७४1४) अ्रज-(सं °)-१. श्जन्मा, जन्मरहित, २. बद्या, २. विष्णु, ४ शिव, £. कामदेव) ६ दशरथ कं पिता का नाम; ७. चकरा; ८ माया, 8. रोहिणी नक्त, १०. मेघ । उ० 9 अकल निर्पाधि निरगुन निरंजन ब्रह्म कर्म-पथमेक्मज निविकारं । (वि० १०) २. करता को अज जग॑त को; भरता को हरि जान। (ख० २७३) ४. चंद्रसेखर सूल- पानि हर अनघ अज अमित अविछिन्न बूपसेपगासी । (वि ० ४६) ७ तदपि न तजत स्वान श्रज खर ज्यो फिरत विषय अनुरागे । (वि० १९७) ग्रजघामा-(सं° अजधाम)-द्य- लोक । उ० पद्‌ पाताल सीस अजधामा । (मा० ६।१९।१) उअजहि-झअज को, ब्रह्मा को । उ० मसकहि करद्‌ विरंचि प्रभु अजहि मसक ते दीन ! (मा० ७१२२ ख) प्रजगर-(सं०)-१ एकं प्रकार का बहुत मोटा सप, २. झालसी ्रादमी 1 उ० १, बैठ रदसि अजगर दव पापी । (मा० ७१०७४)




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