दिवाकर का वेदांक | Divakar Ka Vedank
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
372
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परसतु इस अर्थ से एक बड़ी विपत्ति हैं कि इतनी
बड़ी आयु हो सकेगी कि नहीं-- 'जीवेम शरद.
शतम ` इस मन्त्र मे बेद॒ मनुष्यकी सो च्ष की श्चायु
बतलाता है. और ''भूचश्र शरद. शतात” यह भी
कहता हैं और सौ वप से भी अधिक अआयु के लिये
प्रार्थना है । उपनिपद में एक सौ बीस वष की आयु
का उल्लेख है | वचसान समय में भी डेढ़ सौ वं
की आयु के मनुष्य मिले है, रोगी योग बल से सौ.
दोसौ, तीन सौ, चारसौ वषं तक जी सकने दोग पर
मनुष्य का यह भौतिक शरीर योग बल पर सहम्त्र
देश सस्र यर्ष तक जीवित रह सकेगा कि नहीं यह
निचारणीय है । ः
मंगति तो ठीक बठती हैं
शतत युन इम अथवमसन्त्र के उल्लेग्व में ह मने
नप्युनं इन दो शन्दोका द्धे ने + अयुतं करके
और प्रकार का अध किया है. किन्तु एक प्रसिद्ध
वैदिक विद्वान का मत है कि ते + अयुत ऐसा छेद न
किया जाय और ते युतं गसा ही समक कर उस मन्त्र
काय अर्थं किया जायकि इन्द्र, अग्रि तथा बिश्वे-
देव हम पर श्मनुम्रह करे जिममे दम शन ( ६८८) द्र
( >८० ) त्रीणि ( ६2० ) चन्यारि ( #22 ) हप्यनान
( वषे ) कमे ज्निताय जिमम् मके किमी त्रिपयमे
लग्जित न होना पढ़े-शुभ जीवन व्यतीत कर ।
संगति तो ठीक उठती हे । हमने प्रथ वक्तव्य से
शन > अयुत > ४२२ उम प्रकमि ४२२८००००२० वष
लगाये हैं, उसमें इतना समक लीजिये कि शन > अयुत
नहीं किन्तु शा और श्रयुत के मध्य मे सहस्त्र का
अध्याहारे करकं सहस्र > अयुत > ४३२ हैं । शतः का
सस्तन्ध केवल मनुष्य की आयु म लगाना चाहिये
श्मौर द्रे, त्रीरि, चत्वाि कै साथ जोड कर संगति
लगा लेनी चाहिए । उम मन्त्र पर अन्य विद्वान अपने
श्रपने विचार प्रकट कर सकते हैं ।
वेंद में क्या है
( १) एक परमात्मा का वर्णन है ¦
(२) उसकी सत्ता और महत्ता का जर्गन है ।
१०
(३) बहौ चगचर जगत का स्वामी है ।
(४) उसके विराट स्वरूप का वर्पन हैं ।
( ४ ) प्रकृति और उसकी सोलह ।वेकृतियों का
उन्लेग्व हैं ।
(६) जीवान्मा के लिए ही यह दृश्य ( चिकृति-
मय जगत ) है ।
(७ ) बही क्म फल भागना हे ।
(८) वटी जन्म मरणा के चक्र में श्याता दै ।
(६) बही मोक्ष मार प्राप्त कर सकता है ।
(१८) किस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए
इत्यादि का उन्लेग है |
(११) कौटुम्बिक जोवन--
(१०) सामुदायिक जीवस--
(१३) च्यक्तिगत प्राथना--
(४) सस्टिरूप की प्राथना--
(१५) मन की गति इस्ट्रिय दमन की युक्त,
(१5) पंच महाभूत, पंच तन्साता छाठि का उत्स्नेस्व |
(१ 59 अग्नि-वायु-इन्द्र देवता के कार्य का बरगन |
(१८) वेतीस देवलाओ का वर्गसन ।
(८६) श्तु चक्र, मतरन्सम चक्र ।
(२५) साठ बसु, ग्कादश सदर, द्वारण आश्त्यि ।
(२४) द्वादश मागम--
२८२) शारीर वितान--
(२३) आम विज्ञान--
(२५) मनाविज्ञान -
(२) पर चया का मूल)
(२5) पग्मान्मादटी तेद जान कां प्ररक !
(२७) वाचा विज्ञान
(२८) वद्रान की शक्ति
(२६) सभा विन्नान--क प्रकार कौ सभा ।
(३०) राजा का कर्तव्य, प्रजा का कन्तत्र्य, पग-
स्पर सम्बन्ध--
(३१) भुः { प्रथिवी ) मुव. ( च्रन्तरि्त) स्वः
(सूयलाक।
(३९) मूल मकृति, सृष्टि-उत्पत्ति के पूर्व की दशा
(5३, मनुष्य की अभिकांत्ताएँ और उनकी पूर्ति
का साधन यज्ञ--
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