दिवाकर का वेदांग | Divakar Ka Vedandak

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Divakar Ka Vedandak (1935) Ac 4547 by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परन्तु इस अर्थ से एक बड़ी विपत्ति है कि इतनी बल्छी आयु हो सकेगी कि नहीं-- जीवेम शरद. शतम” इस मन्त्र मे वेद सनुष्यकी सो वर्ष की आयु बतलाता है और “सूयश्च शरद, शवात” यह भी कहता है और सौ वर्ष से भी अधिक आयु के लिये प्राथना है । उपनिषद में एक लो बीस वष की आयु का उल्लेस्म है| वत्तमान समय से भी डेढ़ सो बष की आयु के मनुब्य मिले है, ओोगी योग बल से सौ. दोसो, तीन सौ, चारसौं चषे तक जी सकते होंगे पर मनुष्य का यह भौतिक शरीर गोग बल पर महस्् देश सहस्र बर्ष लक जीविन रह सक्तगा कि नी यह निचारणीय ड । संगति तो ठीक वरती दं शतत युन इम अथवमन्त्र के उल्लग् में हमने नप्युनं इन दो शब्दों का छेद ने+अयु्त करके ओऔर प्रकार का अथ किया है. किन्तु एक प्रसिद्र वैदिक बिद्वान का मत है कि ते+ अयुत ऐसा छेद न किया जाय और ते युत॑ ऐसा ही खमक कर उस मन्त्र का यह আগ किया जाय कि इन्द्र, अग्नि तथा विज्चे- देव हम पर अनुम्ह करे जिससे हम शत ( १००) हे ( २८० ) न्रीशि ( ३०० ) चल्वारि ( ४०० ) हायनान ( ब्ष ) ऐसे बिताये जिससे कूमका किसी बिपय से लब्जित न हात्ता पदे--शुभ जीवन व्यतीत कर । संगति तो ठीक बेठती है । हमले प्रवे बकव्य मे शत > अयुत > ४२२ उम प्रकार ४३४२००००००० बष लगाये हैं, उसमे इतना समर लीजिये कि शत » अयुत नहीं किन्तु शव और अयुत के मध्य में महख्र का अध्याहारे करकं सहस्र > नुत > १३ + है । 'शत्त' का सस्तन्ध केवल मनुष्य की आयु म लगाना बाहिय और हे, त्रीरिग, चत्वारि के साथ जोड़ कर संगति लगा लेनी चाहिए | इस मन्त्र पर अन्य विद्वान अपने अपने विचार प्रकट कर सकते हैं । त्रेंद में क्‍या है ( १) एक परमात्मा का वर्णन है ¦ (२ ) उसकी सप्ता और सहसा का बरग्गंन है । १० (३) बहौ चगचर जगत का स्थामी है । (४ ) उसके विराट स्वरूप का वरएंन हैं । ( ४ ) प्रकृति और उलकी सोलह [विकृतियों का उत्लग्व हे । (£) जीवान्मा क लिए ही यह दृष्य ( बिक्नृति- मय जगन ) है । (७ ) बही জল फल भागना हे । (८ ) वही जन्म मग्ण के चक्र में आता है। (६ ) बही सोक्ष मार्ग प्राप कर सकता है । (१५) किस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए इत्यादि का उल्लेग्व है | (१४) कौटुम्बिक जोवन-- (२) सामुदायिक जीवन-- (२३) व्यक्तिगत ग्राथना-- (४५) समष्टिरप की प्राधना-- (५५) मन की गति इन्द्रिय दमन की युक्ति, (४5) प्रच महाभूत, पंच तन्‍्मात्रा आदि का उल्लेग्ब । (५५) अग्नि-बायु-इन्द्र देखता के काय का वर्णेन । (?८) तेतीस देवताओं का লাল । (१६) ऋतु सक्र, सव॒न्सर चक्र | (२०) आठ बसु, एकाइश म्द. রাস आउरित्य । (२१) द्वादश मास-- २०) शारीर विलान-- (२३२) आत्म विज्ञान-- (२४) मनोविज्ञान -- (२५) परा जिया का मूल । (२5) परमास्मा ही जेठ ज्ञान का प्रग्क | (२७) वाचा विज्ञान (२८) वद्रान की शक्ति (२६) सभा विन्नान--क प्रकार कौ सभा । (३०) राजा का कर्तव्य, प्रजा का कन्तत्र्य, पग- स्पर सम्बन्ध-- (३१) भू: ( प्रथिब्री ) मुब. ( अन्तरिक्ष ) स्वः (सूर्यलोक। (३२) मूल प्रकृति, स्टृष्टि-उत्पत्ति के पूर्ण की दशा (३३) मनुष्य की अभिकांक्ञाएँ और उनकी पूर्त्ति का साधन यज्ञ--




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