धर्मशर्माभ्युदय | Dharmsharmabhyuday
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
286
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१४ धर्मशमम्युदथ
गरन्थोमि कद तरदसे काव्यस्वरूपका वणन किया है } एक दूखरेने दृसरेकी
मान्यतार्श्रोका खरडन कर श्रपनी-श्चपनी मान्यताश्रोको पुष्ट किया है । यदि
विचारक दष्टसे देखा नाय तो किसीकी मान्यताएः श्रसंगत नहीं है क्योकि
सथका उद् श्य चमत्कार पैदा कनेवाले शब्दार्थं ही केन्द्रित दै । सिषं
उस चमत्कारके कोड रसे, कोई श्रलंकारसे, कोई ध्वनिसे, कोर व्यज्जनासे
श्रौर कोई विचित्र उक्तियोसे श्रमिव्यञ्जित करना चाहते है ।
काव्यके कारण--
'सचंतो सुखी प्रतिभा “बहुज्ञता व्युष्पत्तिः' सब श्रोर सब शास्त्रोंमे
प्रृत्त होनेवाली स्वाभाविक बुद्धि प्रतिभा श्रौर श्रनेक शाखत्रोके श्रध्ययनसे
उत्पन्न हुई बुद्धि व्युत्पत्ति कहलाती है । काव्यकी उत्पत्तिमें यही दो मुख्य
कारण हैं। “प्रतिभा-व्युत्पत्यो' प्रतिभा श्रेयसी” इत्यानन्दः--श्ानन्द
श्राचार्थ का मत है कि प्रतिभा श्र व्युत्पत्तिमें प्रतिभा ही श्रेष्ठ है क्योकि
वह कविके श्र्ञनसे उत्पन्न हुए दोघको हटा देती है श्रौर “ब्युत्यत्ति:
भेधसी' इति मङ्गल.+- मङ्गलका मत है किव्युत्यत्तिही श्रेष्ठ है क्योंकि
वह कविके श्रशन्ति कृत दापरको लिप दत है । 'प्रसिसा-ब्युत्पत्ती सिथः
समवेते भ्रेयस्यौ' इति यायावरीयः --यायावरीयका मते है कि प्रतिभा ग्रौर
व्युत्पत्ति दोनो मिलकर श्रेष्ठ है क्योकि काव्यम सौन्दर्य इन दोनो कारणोसे
ही झा सकत। है । इस विषयमे राजशेखरने श्रफ्नी कान्य-मीमासामे स्या
ही श्रच्छा लिखा है--'न खल॒क्ावण्यलामादत रूपसम्पत्, ऋते रूप-
सम्पदो वा लावण्यल्षब्िमंहते सौन्दर्याय'--लात एयके प्रास हुए बिना
रूप सम्बत्ति नहीं हो सक्ती श्रौर न रूप-सम्पत्तिके बिना लावएयकी प्रा
सौम्दयंके लिए हो सकती है।
कचि---
'प्रतिभाव्युत्पत्तिमाँश्र कवि. कविरिस्युर्यते”--प्रतिभा श्रीर ब्युत्पत्ति
User Reviews
No Reviews | Add Yours...