पुण्य विवेचन | Punya Vivechan
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
90
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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पृष्मे का चिकेन : ७
“अपि शब्द से यहू जीव जब अहुन्त लघवा सिंद्ध परमेष्ठी हो
जाता है तो यह पुष्य कर पाप दोनों से रहित हो आका है । जीव
पदार्थ का ब्णन करते हुए साम्सत्य से मुणस्थानों में से!
और सासादन युणस्थानवर्ती जोव॑ तों पापी हैं। मिश्रगुभस्थान करे
जीव पुष्य पापरूप हैं; क्योंकि उनके एक साथ सम्यक्त्व आर
मिथ्यात्व रूप मिले हुए परिणाम होते हैं । तथा असंग्रत सम्यग्दृष्टि
सम्यक्त्व सहित होने से, देशसंयत सम्यक्त्वं भौर व्रत से सहित होने
चे भौर प्रमत्त संयत आदि गुणस्थान-वर्ती कीव सम्यक्त्वे बर महा-
बरत्त से सहिद होने से पुण्यात्मा जीव हैं ।'”
जीवाजीवो पुरा प्रोक्ती, सम्यक््त्वब्रतज्ञानवान् ।
जीवः पुष्यं तु पापं, स्यान्मिथ्यात्वादिकलकवान् ।
11३।२७ ( आचारसार )
अ्थे--सम्पर्दर्शन-शान-वारित्र को षार करने वाला भन्त-
रात्मा पुण्यरूप है । और जो मिथ्यात्व आदि से कलंकित हैं वे पाप-
रूप हैं ।
यदि यह शंकरा को जाय कि अन्तरात्मा पुण्य पाप दोनों हो
प्रकार के कमो का बन्ध करता है फिर भी उपयुक्त आं ग्रन्थों में
उसको पुष्प जोव क्यो कहा गया दहै? तो यह शंका ठीक नहीं है,
वयोंकि अन्त रात्मा के कमं-बन्ध होने पर भी संवर-पूर्वक कमं-नि्जे रा
अधिक होती है । इसलिए अन्तरात्मा के द्वारा जीव पवित्र होकर
परमात्पा बन जाता है । अतः उपयु आषं ब्रस्थों में अस्तरात्मा
को पुण्य कहां जाना उचित है । क्योंकि पुण्य वह है जिसके हारा
आत्मा पित्र होली है ४ ~~
थी पृथ्यपाद आचायं ने समाधि-तन्त्र में कहा भी है--
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