जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश | Jainendra Siddhant Kosh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
530
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जेनन्द्र सिद्धान्त कोश
( क्षु जिनेन्द्र वर्णो )
व्यापिनीं सवंलोकेषु सर्वतत्त्वप्रकारिनीम् ।
अनेकान्तनयोपेतां
पक्षपातविनाशिनीम् ।॥ १॥
अज्ञानतमसंहर््री मोह-शोकेनिवारिणीम् ।
देह्यदेतप्रभां मह्यं विमङाभां सरस्वति ! | २॥
[ अं]
अंक---१. ( घ. ५/१. २७) पिण्णणल. र्. सौधर्म स्वर्गका १७बौँ पटल
व हन्दरक-दे० स्वर्ग /५ । ३. रुचक पर्व तस्थ एक कूट--दे० लोक।७।
अंककट--मानुषोत्तर व कुण्डल पर्वतस्थ कूट--दे० लोक/७।
अंकगणना--! ध. {।/्/२७ } कैरप्क्रला४४५००.
अंकगणित--( ध. ५/१./२७) ^ 2४५.
अंकप्रभ--ण्डलपव तस्थ बूट-- दे लोक/3 ।
अंकसय--पभहरदस्थ एक कूट-- दे० लोक/७1।
अंकसुख--! ति. प. /४/२४३३ ) कम चौड़ा ।
अंकलेश्वर--{ ध. १/१.२२।प८. 1. ) गुजरात देशस्थ भड़ौच
जिलेका एक वर्तमान नगर ।
अंकावती--मुर्व विवेहस्थ रम्या शेत्रकी मुख्य नगरी--दे० लोक/3।
अंकुदित--कायोस्सर्गका एक अतिचार--दे० व्युत्सर्ग/ १ ।
अंग--१. (म. परम. ४8/प. पन्ालाल ) मगध देशका पूर्व भाग ।
प्रधान नगर चम्पा ( भागलपुर) है। २. भरत क्षेत्र आर्य खण्डका
एक देश--दे० मनुष्य /४ । ३. ( प. पु. /१०/१२ ) सुग्रीवका बड़ा पृत्र ।
४. (ध. (प्र. २७। ) छलल. ४. प. घ.उ/ ४०८. लक्षण च
गुणशाङ्गं रश्दाश्चेकाथ बगाचकाः । = लक्षण, गुण ओर अंग ये सब
एकार्थनाचक दण्द है
क अनुमानके पोच अंग---दे? अनुमान्।३।
+ ज़ल्पके चार शंग--दे० जलप ।
+ संम्यण्दशचनं, श्षान व चारिन्रढे अंग--रे० बह बह नाम ।
* शरीरके भंग---वे° अंगोर्पाग ।
अगक्ञा--र. भरतानका एक विकश्प-दे० शरतज्ञान 111; २. अष्टांग
निमिसक्षान-दे० निमित्त।२।
अंगदु--{ प. प/१०/१२ ) भग्रीवका द्वितीय पत्र ।
अंगपेण्णत्ति--आचार्य शुभवन्दर (ई. १५१६-१५५६) द्वारा रचित
एकं प्रन्थ-दे० 'हुभचन्द्र' ।
अंगार--१. आहार सम्बन्धी एक. दोप-दे० आहार 1/२ ।
२. वसति सम्बन्धो एक दोप-दे० सति ।
अंगारक--मरत शेत्रका एक देश--दे० मनुष्य/४ ।
अंगारिणी--एक वि्ा--दे निदा ।
अंमावतं--बिजयार्धकौ दक्षिण श्रेणीका एकं नगर-दे० विद्याघर ।
अंगुल--केन प्रमाणका एकं भेद-दे० गणित 1/१।
अंगुलीचालन--फायोत्सगंका एक अतिचार--दे० व्युत्सर्ग/१।
अगोपांग-स. सि।८/११।३८६ मदुदयादङ्गोपाङ्निवेकस्तदङ्गोपाङ्ग-
नाम । = जिसके उदयसे अंगोपांगका भेद होता है बह अंगोपांभ नाम
कम है ।
घ. ६/१.६-१८२८/४४/२ जस्स कम्मखंधस्सुदरण सरीरस्संगोव॑गणिप्फत्ती
हाज तस्स कम्मक्लंधस्य सरीरअंगोवंगणामे । = जिस कम स्कन्धके
उदयसे शरीरके अंग ओर उपांगोकी निष्पत्ति होती है, उसं कर्म
स्कन्धका दरीरांगोपांग यह नाम है। (ध. १२।५,५.१०१।३६/४)
(गो. जी.|जी. प्र./३३/२४/४ )
२. अंगोपांग नामकमंके भेद
. खं. ६। १,६-१। सू. ३५। ५२ जं सरीर्जगोषंगणामकम्मं तं तिबिहं
ओरालिग्रसरीरअंगोवंगणामं बेउव्वि्रसरीरअंगेबं गणामं, आहार-
सरोर अंगोबंगणामं चेदि । ३५॥ = अंगोपांग नामकम तीन प्रकारका
है-ओदारिकङरीर अंगोपांग नामकर्म, वे क्रियक शरीर अंगोषांग
नामकर्म ओर आहारकशरीर अंगोपांग नामकर्म । ( ष. ख. १३।६.४।
सू.१०६।२६६ ) (पं. सं.|प्रा.२/ ४४७ ) ( स.सि।८।११।३८६ ) (रा.
बा.(८।११।४।६७६/१६ ) ( गो. क.जी. प्र/२७/२२); ( गो. कजी.
प्र३३।२६)
ह अंगोपांग प्रकृतिकी बन्घ, उदय, सर्व प्ररूपणाएँ
ब तस्सम्बन्धी नियमादि--दे° बह वहे नाम ।
जय
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