न्यायावतार | Nyayavtaar

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Nyayavtaar by विजयमूर्ति शास्त्राचार्य - Vijaymurti Shastracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ रायचन्द्रजैनशाख्र माला [ आादि-वाक्यकी प्र० अ० कुछ भी नहीं है, इस कारण उसको कोई मी शुरू नहीं करता है; बेसे दी इस प्रारम्भ किये जानेबाढे प्रकरणमें अभिषेयादि न होनेसे उसे भी झुरू नहीं करना चादिये।'--ऐसा कह सकनेबाछों के तर्कको खण्डित करनेके लिए प्रारम्भ ही ' आदि-वाक्य ' के द्वारा अभिधेयादिका प्रकाशन कर दिया जाता है । ऐसा होनेसे उक्त तर्कके छिए फिर अबकाश नहीं रह जाता। यह्दी प्रन्यारम्भमें आदि-वाक्यके रखनेका प्रयोजनं है। ” अर्च॑टका उपर्युक्त कथन तो धर्मोररके कथनसे भी खराब है, क्योंकि यदि, उनकी रायमें भी, आदि-बाक्य अप्रमाण है ओर हसी कारण अभिषेयादिको साक्षात्‌ कक्कर मो बह ( आदि-वाक्य ) प्रेक्षावान लोरगोकी प्रवृति नष्ट कराता दै, तो दूसरे द्वारा उपस्थित तर्ककी असिद्धनाको मी बह केसे बतरा सकता हैं? क्योंकि अप्रमाण तो अकिश्वित्कर--कुछ भी नहीं करनेवाला है। जब कुछ भी नहीं करनेवाछा है, तो फिर वह दूसरोके द्वारा उपन्यस्त ‹ अभिषेयादिशयन्यश्वात्‌ › शस त्ककी असिद्धता भी कैसे बता सकेगा ! अथात्‌ नही बतछा सकेगा । यादि भप्रमाणको अकिश्ित्कर न मानकर ' किश्चित्कर-कुछ करनेवाला ' मानोंगे, तो प्रमाणका विचार करना ही अनर्थक हो जायगा, क्योकि समी कुछ तो 'अप्रमाणभ्से हो जायगा, तत्र फिर ' प्रमाण ' सिताय झख मारनेके और कया करेगा ? इसलिए आदि-वाक्य प्रमाणभूत है ओर त वह भभिधैयादिका प्रतिपादन करता हभ प्रेक्षावान्‌ लोगोंकी प्रचुत्ति कराता है, और इसी कारण बह प्रकरणकी आदिमें रक्खा जाता है) ५--आदि-बाक्यकी प्रमाणता और अप्रमाणताक विषयमे विचार (अ ) इस विषयमें बौद्धका पूर्वपक्ष-' आदि-वाक्य अप्रमाण है । ' बोद्ध प्रन्थकारोंमें घर्मोत्तर और अचेट प्रसिद्ध प्रन्धकार है; दोनों ही भादि वाक्यके प्रयोगको प्रमाण नहीं मानते । वे कहते हैं कि--आदि-बाक्य शब्द-समूद है । दाब्दम अपने भरकर प्रति न तो तादास्य- रूप सम्बन्ध है, ओर न तदुत्पत्तिरूप । दोनोंमेंसे किसी भी सम्बन्धके न होनेसे बह प्रमाण नहीं है। तादात्म्यढक्षण ( भमिन-ओतप्रोत रूप ) सम्बन्ध तो यों नहीं है कि शब्द श्रौर अर्थमें वैसी प्रतीति नद होती दे । यदि उन दोनों में अप्रतीयमान भी तादात्म्पकी कल्पना करते हो, तो शरप्नि, मोदक, ( कई ) आदि शब्दोकि उच्चारणके अन्तर मुखका जढना, मरना भादि हो जाना चाहिये, लेकिन रेसा होता नहीं दे । इसकिए शब्द और अर्यमें तादात््य सम्बन्ध तो है नहीं । ओर न तदुत्पत्तिठक्षण सम्बन्ध ही बनता है । क्योंकि देखो, तदुत्पत्तिटक्षण सम्बन्ध किसी एकका किसी दूसरेसे उत्पन होनेका नाम हे । यदँ इस सम्बन्धका विचार शब्द और अयेमें हैं, सो यहीं दो दी विकल (मेद्‌ या पक्ष) हो सक्ते हैं-(१) एक तो यह कि शब्दसे अर्थ उत्पन होता दै । (२) दूसरा यह कि अबेसे शब्द उत्पन होता है! सो इसमेंसे पहला विकल्प तो दो नदीं सकता है, क्योंकि १. तादास्म्बरूप सम्बन्ध अमिल सम्बन्ध है. । २. शदु्सिरूप सम्बम्ब भिज्ञ होते हुए भी किसी एकक दूशरेंखे उत्पन्त दोमैका सम्बन्ध हैं | १ +




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