सुयगडो | Suyagado-1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका नाम-बोध प्रस्तुत मागम का नाम 'सूयगडो' है। समवाय, नंदी और अनुयोगद्दार--तीनों आगमों में यही नाम उपलब १ ठे र निर्युक्तिकार भद्रवाहुस्वामी ने प्रस्तुत भागम के तीन गुण-निष्पन्न नाम बतलाए है--ः है +. १. सूतगड--सूतकृत २. सुत्तकड--सूत्रकृत ३. सूयगड--सुचाकृत प्रस्तुत मागम मौलिकदृष्टि से भगवानु महावीर से सत (उत्पन्न) है तथा यह प्रंथरूप में गणघर के । हारा इसका नाम सूतछृत है । +. इसमें सुत्र के अनुसार तत्त्ववोघ किया जाता है, इसलिए इसका नाम सुत्रकृत है । इसमें स्व और पर समय की सुचना कृत है, इसलिए इसका नाम सुचाकृत है । ी वस्तुत: सूत, सुत्त और सुय--ये तीनों सूत्र के ही प्राकृत रूप हैं । आकारभेद होने के कारण तीन गुणात्मक नामों की परिकल्पना की गई । सभी अंग मौलिक रूप मे भगवान्‌ महावीर द्वारा प्रस्तुत गौर गणधर द्वारा ग्रस्थरूप में प्रणीत हैं । फिर केवल प्रस्तुत भागम का ही ^सूतक्ृत' नाम क्यौ ? इसी प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है । प्रस्तुत मागम के नामका अर्थंस्पर्णी भाधार तीसरा है । क्योकि प्रस्तुत भागम में स्वसमय भौर परसमय की तुलनात्मक सुचना के संदर्भ में आाचार की प्रस्थापना की गई है। इसलिए इसका संबंध सूचना से है । समवाय और नंदी में यह स्पष्टतया उल्लिखित है-- ग्सुयगढे ण॑ ससमया सुदज्ज॑ति; परसमया सुइज्ज॑ंति, ससमय-परसमया सुइज्जंति ।”' जौ सूचकं होता है उसे सूत्र कहा जाता है । प्रस्तुत भागम की पृष्ठभूमि में सुचनात्मक्त तत्त्व कीः प्रधानता है, इसलिए इसका नाम सुत्रकृत है 1 सुभ्रकृत के नाम के संवंध में एक अनुमान और किया जा सकता है । वह वास्तविकता के बहुत निकट प्रतीत होता है । दुष्टि- वादके पांच प्रकार हैं-- १. परिकमं ४. पूवंगत २. सूत्र ५. चूलिका । ३. पुर्वानुयोग आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है ।” प्रस्तुत आगम की रचना उसी के आधार पर की गई, इसलिए इसका 'सूत्रकृत' नाम रखा गया । सुत्रकृत शब्द के अन्य व्युत्पत्तिक अर्थो की अपेक्षा यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है । 'सुत्तगड' भौर वौद्धों के “सुत्तनिपात' मे नामसाम्य प्रतीत होता है । १ (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू० ८८ । (ख) नंबी सू० ८०। (ग) अणुओगहाराइं, सू० ५० 1 , २. सूत्रकृतांगनिर्णुक्ति, गाया २ : सूतगडं सत्तफडं, सूयगड़ं चेव गोण्णाई । ३. (क) समवा, पण्णगसमवामो, सू० ९० । (ख) नेवी, सू० ८२ ४. कसायपाहुड, भाग १ ¶० १६३४।




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