सुयगडो | Suyagado-1
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
36 MB
कुल पष्ठ :
700
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका
नाम-बोध
प्रस्तुत मागम का नाम 'सूयगडो' है। समवाय, नंदी और अनुयोगद्दार--तीनों आगमों में यही नाम उपलब
१ ठे र
निर्युक्तिकार भद्रवाहुस्वामी ने प्रस्तुत भागम के तीन गुण-निष्पन्न नाम बतलाए है--ः है +.
१. सूतगड--सूतकृत
२. सुत्तकड--सूत्रकृत
३. सूयगड--सुचाकृत
प्रस्तुत मागम मौलिकदृष्टि से भगवानु महावीर से सत (उत्पन्न) है तथा यह प्रंथरूप में गणघर के ।
हारा
इसका नाम सूतछृत है । +.
इसमें सुत्र के अनुसार तत्त्ववोघ किया जाता है, इसलिए इसका नाम सुत्रकृत है ।
इसमें स्व और पर समय की सुचना कृत है, इसलिए इसका नाम सुचाकृत है । ी
वस्तुत: सूत, सुत्त और सुय--ये तीनों सूत्र के ही प्राकृत रूप हैं । आकारभेद होने के कारण तीन गुणात्मक नामों की
परिकल्पना की गई ।
सभी अंग मौलिक रूप मे भगवान् महावीर द्वारा प्रस्तुत गौर गणधर द्वारा ग्रस्थरूप में प्रणीत हैं । फिर केवल प्रस्तुत भागम
का ही ^सूतक्ृत' नाम क्यौ ? इसी प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है । प्रस्तुत मागम के नामका अर्थंस्पर्णी भाधार
तीसरा है । क्योकि प्रस्तुत भागम में स्वसमय भौर परसमय की तुलनात्मक सुचना के संदर्भ में आाचार की प्रस्थापना की गई है।
इसलिए इसका संबंध सूचना से है । समवाय और नंदी में यह स्पष्टतया उल्लिखित है--
ग्सुयगढे ण॑ ससमया सुदज्ज॑ति; परसमया सुइज्ज॑ंति, ससमय-परसमया सुइज्जंति ।”'
जौ सूचकं होता है उसे सूत्र कहा जाता है । प्रस्तुत भागम की पृष्ठभूमि में सुचनात्मक्त तत्त्व कीः प्रधानता है, इसलिए इसका
नाम सुत्रकृत है 1
सुभ्रकृत के नाम के संवंध में एक अनुमान और किया जा सकता है । वह वास्तविकता के बहुत निकट प्रतीत होता है । दुष्टि-
वादके पांच प्रकार हैं--
१. परिकमं ४. पूवंगत
२. सूत्र ५. चूलिका ।
३. पुर्वानुयोग
आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है ।” प्रस्तुत आगम की रचना उसी के आधार पर की गई,
इसलिए इसका 'सूत्रकृत' नाम रखा गया । सुत्रकृत शब्द के अन्य व्युत्पत्तिक अर्थो की अपेक्षा यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है ।
'सुत्तगड' भौर वौद्धों के “सुत्तनिपात' मे नामसाम्य प्रतीत होता है ।
१ (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू० ८८ ।
(ख) नंबी सू० ८०।
(ग) अणुओगहाराइं, सू० ५० 1
, २. सूत्रकृतांगनिर्णुक्ति, गाया २ : सूतगडं सत्तफडं, सूयगड़ं चेव गोण्णाई ।
३. (क) समवा, पण्णगसमवामो, सू० ९० ।
(ख) नेवी, सू० ८२
४. कसायपाहुड, भाग १ ¶० १६३४।
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