अध्यात्मरत्नत्रयी | Adhyatmratntryi

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Adhyatmratntryi by महावीरप्रसाद जैन - Mahavirprasad Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुर्व रंग [ ६ वह न सही निश्चयसे, तनके गुण :केवेलीसें न होते । जो 'प्रुके गुण कहता, वही ` परथुका स्तवन करता ॥२६॥ नगरीके चणैनमे, ज्यो राजाकी न वर्णना ह्येत । तन गुणके वणेन, त्यौ नर्हि प्रयुकी स्त॒ती होती ॥२०॥ जो जीति इच्िर्योको, ज्ञामस्वरभावी हि श्राप्को मने। नियत जिवेन्िय उसको, परमङुशल साधुजन कहते ॥२१॥ जो वीति. मोह सारे, ज्ञानस्वभावी हि आपको मने । ` जितमोह साधु उसको, परमाथंग साधुजन कहते ॥३२॥ मोहनयी साधके, ज्यौंदि सकल मोह कीण हो जाता | त्यौ हि प्रमार्थज्ञायक, कहते. ह क्षीणमोह उन्हें !३३॥ चू फि सकलमार्वोको, पर दँ यह जानि त्यागना होता । इस कारणे निश्चयसे, प्रत्याख्यान ज्ञानको जानो ॥३४॥ लेसे कोद पुरुप पर, बस्तुको पर हि जानकर तजता । त्यौ सब परमार्बोको; पर हि जान विज्ञनन तजता ॥३१॥ मोह न मेरा इद्र, मै तो उपयोगमात्र एकाकी | यों जानें उसको मुनि, मोदनिममत्व कहते ` है ।॥२६॥ धर्मादि पर नं. मेरे, मे तोः उपयोगमात्र एकाकी । यौ जामे उसको शुनि, धमंनिमंमत्व कहते ई 1३७॥ मै एक शद्ध चिन्मय, शचि दशनक्ञानमय अरूपी हं । अन्य. परमाणु तंक म, . मेरा इछ भी नहीं होता ॥३८॥ इति पूर्वा सम्पूणं . १




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