अध्यात्मरत्नत्रयी | Adhyatmratntryi
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुर्व रंग [ ६
वह न सही निश्चयसे, तनके गुण :केवेलीसें न होते ।
जो 'प्रुके गुण कहता, वही ` परथुका स्तवन करता ॥२६॥
नगरीके चणैनमे, ज्यो राजाकी न वर्णना ह्येत ।
तन गुणके वणेन, त्यौ नर्हि प्रयुकी स्त॒ती होती ॥२०॥
जो जीति इच्िर्योको, ज्ञामस्वरभावी हि श्राप्को मने।
नियत जिवेन्िय उसको, परमङुशल साधुजन कहते ॥२१॥
जो वीति. मोह सारे, ज्ञानस्वभावी हि आपको मने । `
जितमोह साधु उसको, परमाथंग साधुजन कहते ॥३२॥
मोहनयी साधके, ज्यौंदि सकल मोह कीण हो जाता |
त्यौ हि प्रमार्थज्ञायक, कहते. ह क्षीणमोह उन्हें !३३॥
चू फि सकलमार्वोको, पर दँ यह जानि त्यागना होता ।
इस कारणे निश्चयसे, प्रत्याख्यान ज्ञानको जानो ॥३४॥
लेसे कोद पुरुप पर, बस्तुको पर हि जानकर तजता ।
त्यौ सब परमार्बोको; पर हि जान विज्ञनन तजता ॥३१॥
मोह न मेरा इद्र, मै तो उपयोगमात्र एकाकी |
यों जानें उसको मुनि, मोदनिममत्व कहते ` है ।॥२६॥
धर्मादि पर नं. मेरे, मे तोः उपयोगमात्र एकाकी ।
यौ जामे उसको शुनि, धमंनिमंमत्व कहते ई 1३७॥
मै एक शद्ध चिन्मय, शचि दशनक्ञानमय अरूपी हं ।
अन्य. परमाणु तंक म, . मेरा इछ भी नहीं होता ॥३८॥
इति पूर्वा सम्पूणं . १
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