जैन दर्शन | Jain Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो शब्द १९ है । उसकी साषामे प्रका तिरस्कार न होकर उसके अभिप्राय, विवक्षा बौर अपेक्षा दष्टिको समद्चनेकी सरक वृत्तिना जाती ह । गौर हस तरह भाषामेसे आग्रह यानी एकान्वका विष दर होते ही उसकी स्या्ादामृतगभिणी वाक्सुषासे चारो गोर संवाद, सुख और शान्तिकी सुषमा सरसने लगती है, सब गोर सवाद ही संबाद होता है, विसवाद, विवाद और कलूहू-कण्टक उन्मूल हो जाते है । इस मन शुद्धि यानी अनेकान्त्दृष्टि जौर वचनशूद्धि अर्थात्‌ स्याद्रादमय बाणीके होते ही उसके जीवन-च्यवहारका नक्या ही वद जाता है, उसका कोई भी माचरण या व्यवहार रसा नही होता, जिससे किं दरसरेके स्वातन््यपर आंच पहवे । तात्पर्य यह किं बह देसे महात्मत्वकी * ओर चठने जगता है, जहाँ मन, वचन गौर कर्मकी एकसुवरता होकर स्वस्थ व्यचितत्वका निर्माण होने रुगता है । ऐसे स्वस्थ स्वोदयी व्यक्तियोसे ही वस्तुत सर्वोदयी नव समाजका निर्माण हो सकता है और तभी विश्वज्ञाल्तिकी स्थायी भूमिका आ सकती है । म० महावीर तीर्थकर थे, दर्शनद्धर नही । वे उस तीर्थं अर्थात्‌ तरतेका उपाय बताना चाहते थे, जिससे व्यक्ति निराकर भौर स्वस्थ बनकर समाज, देश ओर विद्वकी सृल्दर इकाई हो सकता ह । अत. उनके उषदेरकी घारा चस्तु- स्वरूपकी गनेकान्तसूपता तथा व्यक्ति-स्वाचन्त्यकी चरम परतिष्टापर आधारित थी । इसीका फर है किं जैनदर्शनका प्रवाहं मन.शुदधि ओर वचनयुद्धि मूक आसिक आचारकी पूर्णाक पानेकी ओर ह । उसने परमतमें दूषण दिखाकर भी उनका चस्तुस्थितिके आधारे समन्वयका मार्गं भी दिलाया है । इस तरह जैनदर्धनकी व्यावहारिक उपयोगिता जीवनको यथार्थं वस्तुस्थितिके भाधारसे बुद्धिपूर्वक संवादी बनानेमें है और किसी भी सच्चे दार्यनिकका यही उद्देश्य होना भी चाहिये । प्रस्तुतत ग्रन्थमे मैंने इसी भावसे 'जैनदर्दान'कौ मौलिक दृष्टि समझानेका प्रयत्न किया है । इसके भमाण, भरमेयं ओर नयकी भीमासा तथा स्योदटटाद-विचार आदि प्रकरणोंमें इतर दर्शनोकी समालोचना त्था णाघुनिक मौतिकवाद गौर विज्ञानकी मूक धारायोका भी यथासंभव आलोचन-प्रत्यालोचन करनेका प्रयत्न किया है । जहाँ तकं परमत-खण्डनका प्ररत है, मने उन-ठन मतोके मूल ग्रन्योसे वे अवतरण दिये है या उनके स्थका निदे क्रिया है, जिससे समालोच्य पूर्वपक्षे सम्बन्धमे तरान्तिनहो। ; दष भरन्थमे १२ प्रकरण ह ! इनमें संक्षेपलूपसे उन ऐतिहासिक और तुलनात्मक वकास-बीजोको वतानेकी चेष्ठा कौ गई है, जिनसे यह सहज समन्नमे भा सके कि के 8 {‡ “मनस्येकं वचस्येकं करम॑ण्यकं मदात्मनाम्‌ °” 1 `




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