जैन धर्म में दान | Jain Dharam Men Dan

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Jain Dharam Men Dan by श्री पुष्कर मुनि जी महाराज - Shri Pushkar Muni Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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: ; / किया गया हैं । परन्तु दान की मीमांसा को कहीं पर भी अवस ( १ ३ ` रूप में स्वीकार किया गया है । यमों बपरिग्रुह भौर नियमं र्‌ सन्तोप करा ग्रहण मिला 1 दान का : साघन के रुप में दाहीं उल्लेख नहीं है । गत: यह सिद्ध होता हैं कि वेद मूलक पढ़- ,. देशनों में एक मौमांसा दर्शन को छोड़कर शेप पाँच दर्शनों में दान का कोई महत्व नहीं है । न उसका धिघान हैं, बौर न उसकी व्याख्या ही की गई है । खमप-परस्परा में दान-सीमांसा वेद विरुद्ध श्रमण परम्परा के तीन सम्प्रदाय प्रसिद्ध हिजैन, बौद्ध और '; झामीयक । आजीवक परम्परा का प्रवर्तक गोशालक था । वह नियतिवादी के रूप में भ ९ नर श्र “. .- भारतीय दर्शनों में घहुर्चावत एवं विस्पात था । उसकी मान्यता थी, कि जो माव _/ नियत हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता । संसार के किसी भी चेतन लथवा सचेतन पदार्थ में कोई भनुप्य किसी भी प्रकार का परिवर्तन न्तीं कर सकता 1 सतर सपने घाप , में नियत हूँ । जाज के परस वर्तमान युग में, आाजीवक सम्प्रदाय का शक भी ग्रन्थ . उपलब्ध नहीं है । अतः दान के सम्बन्ध में गोशालक के क्या विचार थे ? कुछ सी _ कहा नहीं जा सकता 1 उसके नियनिवादी सिद्धान्त के यनुमार सौ उसकी विचार चास में दान का कोई फल नहीं है । दान से बोरई लाम नहीं, और नहीं देने से कोई हानि भी नहीं । वीद्-परम्परा में आचार की प्रधानता रही है । प्रजा और समाधि का म भीषम नहीं द, फिर भी प्रचानता शील की ही है। शील णब्द यहाँ स्वापक मर्ये मैं ... प्रयुक्त हुआ दै ! मनुष्य जीवन के उत्थान के लिए जित्तनेभी प्रकारके सत्कर्म वै , नवरणील्ल में समाहित हो जाते हैं । बुद्ध ने णील को बहुत ही. महरत दिया है । तत्त्व 'पर इतना जोर नहीं दिया गया, जितना शील पर दिया गया है, जितना सदाचार पर दिया गया है । दान मी एक सक्कर्म है, अतः यह भी शील वी हो सीमा के अन्दर मा जाता हैं 1 गोद घ्मे में बुद्स्व प्राप्त करने के लिए जिन दशपारमिताओं का चर्णन किया गया हैं, उनमें से एक सारभिता दान कौ भी माना गया) दाने की पुर्णता भी चुदत्व लाग का एक मुख्य कारण माना गया है। दान के सम्बन्घ में युद्ध से 'दीघंनिकाय' में कहा हैं, कि “सत्कार पूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो मन से दान दो, दोप रहित परिय दान दो 1” इस कथन में दान के विपय में चार धाते कही गद द्ू-- दान सर्काशपूर्वक हो, अपने हाथ से दिया गया हो, भावना पूर्वक दिया हो गौर दोप 1 शून्य हो । इस प्रकार के दान को पविश्न दान वहा गया है । संगुत्तनिकाय' में भी चुद्ध से फडा ई--धिद्ा से दिया गया दान, प्रशस्त दान है । | , दानसं भी बढ़कर घर्में के. स्वरूप को समझाया है 1” इस कथन मैं स्पप्ट है, कि यदि ` दानमे श्रद्धा भाव नहीं है, तो बहू दीन, तुल्द्ध दान है । जो भी देना हो, जितना मी: देना हो; वहं धडा से दि: एकल दिए, तमीदेते कौ सार्वकता कदी जां सकती. ` दै1 हीन मावते (4 भवा अनादर से दिया गवा दान, श्र




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