हिंदी साहित्य : एक परिचय | Hindi Sahitya Ek Prichaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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य [ हिन्दी ाहितप भागे चलकर कुछ काल के लिए बपुरश्नंत को नी साहित्य की मापा बलत कार्यों मिला परे उसका जमंगापा-स्वश्प वरावर वन्य रहा घोर उसी से हिन्दी का श्रित टमा । कुठ विदच्‌ जप्रय फो पुरानी हिनदौ कहना जयिक पसन्द करते हूँ 1 प्रिय छन्द दोय या टूट दन्द म य्ययिक लोर्प्रिय हुधा और भक्त ठया शूंगारिक कवियों को इस 'छत्द ने समान सूप से अपनी शोर आकर्षित किया । ४ क] विद्वानों को लव इनमे गन्देटनरीं दमयाद कि बौद्धो शोर जैनों ने अपने धामिक साहित्य का प्रचार लोकमापा में किया वा, जिससे हिन्दी का विकास हुडा । 'ाचार्य पं० रामचन्द शुक्ल के '्रनुपार “श्रपश्नश या प्राकृताभास हिंन्द्री के पधों का सबसे पुशाता पता तांत्रिक शोर योगमार्गी बौद्ध की साम्प्रदायिक स्चना्ों के भीचर विक्रत की सातवीं शताब्दी के श्रन्तिम चरण में लगता दै ।” मुंज भोज के समय एगमग संवत्‌ १०४५० ( सनु ६६३ ई० ) के आसपास वध्र॑य था पुरानी हिन्दी का व्यवहार साहित्यिक काव्य रचनाओं में मिछठा है। इसी लावार पर प्राचार्य शुक्क ली ने महाराज मोज ने लेकर इस्मीर देव के कुच्च पीछे तक ( संबंध, ३०५० ( सन, १६३ ० ) ये तेर संवत्‌ १२५५ ( सन, ५३१८ टूं० ) तक हिन्दी साहित्य के '्रादिकाल की सीमा स्वीकार की है । शिवर्सिद्द ने श्रपने थिवरसिट सरोज में जनशुति को 'ाधार मानकर “पुष्प नासक किसी कवि ( बन्द जन ) का उल्लेख किया हैं जिसने दोह्दों में एक श्लंकार मन्य की रचना की थी, यदद कवि महारास मोल फ पृ युरुप राज मान का खसासद था श्रीर उसका फविलाकाल संवत्‌ ७७० ( सान्‌. ७१३ ई० ) दै} श्राचार्य इजारीप्रसाद द्विवेदी ने धिवि म्रयेल छी जनसुति के सूल में “कर्नल दाद” के राजस्थान [ अनुमाग से 3 को माना हैं । आारम्म के लयमंग इन डेढ़ सी वर्षों में किसी विशेष प्रवृत्ति का वल्कि इन काठ में नये वर्म, नोति, श्यंगार जौर वौर नव प्रकार की स्वनाथे दोहों में मिलती! कर्म म दन्दो माद्ियके श्िहाषह रेचको फे म्द धप साहित्य ते सम्बन्वित बहुत कप सामग्री थी, पर बनेक दिद्वानों के संस्यवल्त से जवं जप्रय का यत अविक नाद्य टमादि पान दै 1 खन्‌ १८७० मे हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण का विशेज्ञ ने सम्पादन किया - जिसके अन्त में झपन्रश भाषा का व्याकरण दिया इश्राषट श्र शद्धरण के सूप में घ्पश्रश के पथ और श्थिकतर दोहे दिये हुए इं। सन १३०९ में पिशेल ने मां जर्सन साया में अपनों पुस्तक यअकाशित की जिसमें उसने यधादसर *दिक्रमो्दशीय', “सरस्वती कंदासरण', “विसाल पंचर्विशाति, सिंहासन दा्त्रियटिका, श्ौर श्रबन्य सिस्तामि' शादि अन्यों में म्रप्तंत कम से ध्ाये श्रपन्नरा की रचनाों का भी उक्देख किया 1 भभविवयत्त कट ^”




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