तत्त्व चिंतामणि भाग ४ | Tatav Chintamani Part IV

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Tatav Chintamani Part IV by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महाराज युधिष्टिस्के जीवनसे मादशें दिशा १९ वी यथादक्ति रक्षा करना सभी क्षत्रिय राजाओका महान्‌ कर्तव्य है | शत्रुकी रक्षाका मात्य तो ओर भी बड़ा ह] मैंने यदि यदद यह आरम्भ न कियां द्वोता तो मैं स्वय दी उस बदी दुर्भोधनको छुड़ानेके लिये दौड़ पड़ता) पर अव्र विवशता है । इसीलिये कहता हूँ; वीरवरो । जाओ--- जल्दी जाओ; दे कुरनन्दन भीमलेन } यदि वह्‌ गन्धर्वराज समझानेसे न माने तो ठुमलोग अपना प्रबल पराक्रम दिखलाकर किसी तरह अपने भाई डुर्येघनको उसकी कैदसे छुडाओ ।* इस प्रकार अजातशत्रु घ्मराजके इन वचनोौको सुनकर भीमसेन आदि चात मादयोके सुपर्‌ प्रसन्नता छा गयी | उन छोगेक्रि अधर ओर भुजदण्ड एक साथ फड़क उठे । उन सबकी आओरते महावीर अयने कदा--“मदाराज [ आपकी जो आज्ञा 1 यदि गन्धर्वराज समश्चाने-ुन्चानेपर दुयौघनको छोड़ देंगे, तब तो ठीक दी है; नदीं तो यद माता पृथ्वी गन्धवैराजका रक्त पान करेगी ।› अर्जुनकी इस प्रतिक्लाको सुनकर दुर्योधनके बूढे मन्त्री आदिको श्वान्ति मिरी । इधर ये चारो पराक्रमी पाण्डव दुर्यो धनको मुक्त करनेके स्यि चर पड़ । सामना होनेपर अर्जुने धर्मराजके आज्ञानुसार दुयोधनको यौ दी मुक्त कर देनेकै लि गन्धर्वोको बहुत समझाया; परन्तु उन्होने इनकी एक न सुनी | तब




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