प्रकाशन समाचार | Prakashan Samachar

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Prakashan Samachar by ओमप्रकाश - Omprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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म स नमे प = दव 3 न ल ह 1. क की मावनाशं मैं विश्ज्लक दोती दै वही च्रपनौ कलय नाश्नो को क्रियान्वितं करने की बात सोचता दे | यदि ऐसा न होता तो हम सवने श्रब तक श्पने माष बहनों का गला .घोट दिया होता, हर किसी स्त्री के साथ व्यभिचार करने प्रर उतर श्रादे श्र दपने मातार्जपता को तिलांजलि दे दी होती श्रोर जिस किसी ने भी किसी मां प्रकार हमारा विरोध किया है उसे मार-मारकर उसका कचूमर निकाल दिया होता । जैसा कि एक प्रख्यात वाल सनोविज्ञानवेता ने कहा है, “व्यक्ति सतत इस सा में लीन रहता है कि बह ्रंतरिक तथा ब्राह्म वास्तविकता को एक-दूसरे से अलग रखते हुए भी उनमें परस्पर-सम्बन्ध बनाए रते |” एक सामान्य बालक तो ऐसा कर सकता है, ` प्र मानसिक रूप से उद्विम्न प्रौढ व्यक्ति की तरह उद्धिग्न बालक भी इन दोनों जगत को श्रापसमे मिला देता है और फलस्वरूप वह्‌ श्रपनी कल्पनाओ्ं को क्रियान्वित करने लगता है श्रौर या तो श्रपने माँ-बाप को छोड़कर भाग जाता है या उन्हें पहाड़ पर से नीचे ढकेल देता है । परन्तु मुभे द्द्‌ विश्वास है कि श्ाज तक किसी भी पुस्तक को पढ़ने की वजह से कोई भी ऐसी पिस्तोल नहीं चलाई गई निसकी लवली पर पहले ही से कोई उंगली कोपि नहीं र्दी थी | श्रन्त में देखा जाए तो जो चीज़ हमे श्रपना मानसिक _ संतुलन ठीक रखने दौर श्रपना श्राचरण सभ्य बनाए स्खनेमे सहायता देती हैः वह दै दूसरे लोगे के साथ हमारा ` सम्बन्ध | बच्चे कया पढ़ें श्रौर क्या न पढ़ें, इस सम्बन्ध में किसी किस्मकी रोकथाम करने की कोशिश करना वां ` नौयहो भी, प्र्‌ बेकार है । यदि सामान्य बच्चे पर साहित्य का असर उतना ही ज्यादा पड़ता हो जितना कि उसके ..... माता-पिता समझते हैं, तो शायद हमें उनके किताबें पढ़ने पर ही पाबंदी लगा देनी होगी । एक श्मादमी ने सुभे बताया करिः बचपन मे पिरामिड के निमीण के चित्र देखकर उसे ` दासो म दिलचस्पी पेदा हदं थी श्रोर उसे उनकी व्यथा को देखकर श्रानंद मिलता था। तोक्या इस कारण ह इतिहास की पुस्तकों पर पाबंदी लंगा बहुत से लोग: बताते हैं: कि बचपन मैं वे यौन-ज्ञान के लिए बाइबिल का. का लेविटिकस बाला भाग हूँ ढा करते थे और उन्हें ओ्रोनान म कन अ क. ४ ( ८ भी कर सं पहन चुका हो कक थे. मस्तक से कसा पमा चद 3 भ ४ ^ ४५ ५५ # क कक, के क क ५ प व ह न ५८१ स्वाज जा उनके समसन से पटल से | श्वन्‌ रूप का तिमी न्त्म प किए व कि बन्द क्रिमी इच्छा को घाताबास्वल करना है | श्र, ; र] ) ॥ य मम नि ^ त ५ |. = ह ८ ग | 1 क म ट न सौ, तर वि सरल परेड लेप पर 4 पः ५० ॥ (क हु [व कथाम को जाएं पर इस प्याज़ को थे कहीोंनस-कही रे दर हद, भ कं ग क ११५ ५ ध क ५ 6 ५४ डी क ५ “क ग कर कुछ सार श्र म ४ भु ४ रा रो १ भी म कमण ए (न 4 | टन ५ ( भ ॥ न कर रहा लग : श्रार योद वे स्ाजन सम मक्त १६१ है ४. क # का $ तु सुद प्स-सर्नर म सष (दन) | क क की ५ भः न (मि जपका ॥ 6 कहता (क 7 अधचकोाश तच्चा क मारपा = कमना पटन्‌ . ` ५ क, क ¢ | बहुत श्रानन्द मिलता है । हम सभी को यह जानकर व्रत सुख मिलता है कि क्रिसी दूसरे की भावनाएं भी हमारी जैसी हैं। हमें इस बात से भी भयभीत नहीं हो. जाना चाहिए कि बचपन से पढ़ा जाने वाला साहित्य बने को कुमाग पर लगा देगा : क्योकि, जैसा कि मिव्यन से कहां है, “शिक्षा का प्रमाव शायद ही कभी बहुत गहरा होता है ४५५९ अलावा उन सुखद परिस्थितियों के जबकि उसकी कोए का ^ थे तावश्यकता नहीं रह जाती |” ययपि पुस्तवा को इस बात का दोप सहीं दिया जा सकता कि उन्हें पढुकर भ्ये कुमाय पर्‌ लग जातेषु या उनसे मानसिक उद्ग उत्पन्स होता है. फिर थी हमारी भावनाओं पर उनका प्रभाव पढ़ता ही है । यह बात ग्र कुल सम्भव है. कि बहुत से प्रोद लोग किसी-न-किसी ऐसी पुस्तक या किसी पुस्तक के ऐसे विवरण का उल्लेख श्रव कर सकते हैं जिसने उन्हें बचपन में विशेष रूप से प्रमाबित किया था । इस प्रकार के दृश्य वपां तक मानस-परट पर अंकित रहते हैं । मेरा श्नुमान यह है कि एस प्रकार के दृश्य किसी-ननकिसी रूप में बच्चे की किसी एसी मानसिक स्थिति को प्रति निभ्वित तरतं नं जिसका ब्भ करौ अषु भप पूरा श्रामास नहीं होता | प्रकाशन समाचार ८: द श: वन. रः द अ साधक: रोग




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