अछूत - समस्या | Achhut-samasya

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Achhut-samasya by दुलारेलाल - Dularelal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ झछूत-समरया अगीठी की '्राग भी काम में नहीं लाते | श्राप इस प्रथा को सघ- विश्वास कह सकते हैं, पर में इसे ऐसा नहीं समझता । नह सो निश्चित है कि इससे हिंदू-घ्म की कोई हानि नहीं हो रही है । मेरे श्राप में एक “ग्रछूत' साथी अन्य आाश्रमवासियों के साथ चिना किसी सेद-भाव क भोजन करता हे, परैं श्राश्रम क बाहर किसी व्यक्ति को ऐसा करने की सलाह नहीं दूता । साथ ही छाप यह भी जानते हैं कि मैं मालवीयजी की कितनी इड़ज़त करता हूँ। मैं उनके पैर घो सकता हूँ। पर वह मेरा छुपा खाना नहीं खा सकते । क्‍या मैं इसे श्रपगे प्रति उनकी उपेक्षा समझकर इससे चुरा मान ? हर्गिज़ नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि नट' उपेक्षा के कारण ऐसा नहीं करते । मेरा घर्म मुझे “सर्वादा-घर्म' का पालस करना सिखलाता है | प्राचीन युग के फ्रषियों ने. इस विषय में ,खूब छुन-नीन तथा गये- षण द्वारा ख महान्‌ सत्यो का , अजुसंधान किया था । इन सतयों की समानता किसी भी धर्म में नहीं वतेमान है। उनमें से एक यह सी है कि उन्होंने सनुष्य के आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिये हानिकर कतिपय खाद्य पदार्थों का पता लगाया था । प्रतः उन्होंने उत्तके सेवन, का निषेध क्या हे मानज्ञो, किती को ब्र यात्रा करनी हे, श्रीर उसे भिन्न रीति-रिवाज मथा भोजन पररमेवाने व्यक्तियों के बीख में रहना है--यह जानकर भि जिम समुदाय के बीच सें रहना होता है, उसके व्यक्तियों की समाज-प्रधा मा्‌ व्यक्ति पर कितना दबाव डाल सकती है, ऐसी विषम मस्या छा सामना करने कै क्ये उन्होंने 'मर्थादा-घर्स' की र्थना की । मैं उसे हिंदू-घर्म का अनिवार्थ झंग नहीं मानता । मैं एक ऐसे समय की भीं कदपना कर सकता हूँ, जब थे बाधाएँ बिलकुल दी उठा दी “ जायँगी । पर झछूतोडर-ांदोलन में जित धकार का सुधार काने




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