हिलोर | Hilor

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Hilor by दुलारेलाल - Dularelal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपमान का भाग्य १५ जब मैं उधर जाया करता था, तब कभी-कभी एक तरुणी मी उधर श्रा जाती थी । अनेक बार ऐसा हुआ कि वहद मेरे निकट से ही टहलती हुई निकल गई | में अपने अध्ययन में इतना लीन रहता फि सुमे उसके आने-जननि का प्रायः पता ही न चलता था । मे भुलक्कड भी परते दर्ज काहू अप जानते दी है । एक दिन्‌ एक वेच प्र एका पुस्तकं भूल गया । मुभ उस पुस्तक की याद्‌ तव्‌ आद, जव स्कूल मे पटाने के लिए उसकी आवश्यकता पड़ी । सायंकाल में वहाँ पहुँच कर उसे खोजने लगा, मैंने इधर-उधर बहुत छू ढ़ा, पर कहीं उसका पहा न चला | रंत में जब निराश होकर वहां से चलने लगा, तब उसी क्षण मैने देला कि एक रमणी मेरे सामने वही पुस्तक लिए खड़ी दै । सु अस्त-व्यस्त देखकर वह्‌ बोली--च्ाप शायद्‌ अपनी पुस्तकं खोज रहे है । यह लीजिए । कल छाप इसे यहीं भूल गए थे । कहीं किसी दूसरे के हाथ में पढ़कर गायब न हो जाय, यही सोचकर में इसे लेती गई थी । आपको खोजने में कुछ कष्ट तो हुआ ही होगा; पर मेस वैसा सोचना भी उचित ही था । मैने अव उसे ध्यान से देखा । यद्यपि उसकी अवस्था उस समय पच्चीस से कम न होंगी, पर नारी-सौंदर्य की तेजोमयी च्माभा से उसकी निखिल देह-णशि जगमगा रही थी । भोलेपत का स्थान सलोनेपन ने ले लिया था । उसका श्ापाद-लु'हित केश- पाश ऐसा सम्पोहक था कि उस पर से अपनी दृष्टि हटाने की मुभे खध-बुध दी न रही । मेरी लालसा सहस्र धाराश्च से उसी को आर प्रवाहित हो उठी । क्षण-भर बाद मुझे चेत हुआ । मैंने कहा--झापकी इस अनुकंपा के लिये में झ्ापका बहुत-बहुद कृतज्ञ हूँ। ं और उसी दिन से मै.उस रमणी का उपासक हो गया | फिर तो उत्तरोत्तर उससे घनिष्ठता बदृती ही गद । मै भातः




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