महाकवि सांड | Mahakavi Sand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ प्रभो! जी हम होइत, दसरथ धर कुबकुर | अरो भ्या खतिने पृद्धी, हम ताकित टुक्कुर टुक्कुर ॥ कबहूँ मछूइत माँल दाँत से, बनल रहित बिलरीटा । कौसल्या जी के दाथम से ले भागित कन्नरोटा ॥ हाँ, भले याद धाया । महाकवि सड क समकालीन कणि मैं दीपेसे लेखक मौर कवि भी थे, जिनके साम सानुनासिक थे। वे थे परिडत नकछेद तिवारी और नकलोल लिवारी ! सनक छेद लिबारी को तो शाप सोग जानते ही होंगे; मंकलोल विवारी का बणन मैं यहाँ संक्षेप में ही कर देवा हूँ। ये तिवारी जी कहां रहते थे, सो तो ठीक मालूम नहीं, पर इतना अवश्य टै कि ये जी छुह लिखते थे सनमें पाँच प्रतिशत के दिसाम ले उनका हिखा हुआ भी रहता था । बचपन में थे गुन्नगप्पे बेचते थे, कुछ दिलों तक “चने जोर गरम' भी बेचा । कुछ दिस गुरन बेचने वालों के भी साथ रहे । इन्दं की संगति से चुरन के हटके सुनते छुनते इन्हें: भी कुछ कविता करने की सभी । बस फिर कथा था, गरसाती मेटो फी शरद इन्होंने अपना एक दत्त कायम किया । मे मालूम, किस पाज़ी मे इन्हें यह सुथमन्त्र दे विया-- “बेड बह हुप इध भपना नाम 'चाइते हो तो शऔरों को बदनाम करों ।”” बस फिर कया च), शन्ति परर तुससी, केशव, मिंदारी




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