धर्मध्यान | Dharmadhyan

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Dharmadhyan by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देव-स्तत्तिः तंम्हारी वाणीके अनुसार चलकर, तप भास्क मानकर, युभ-जंसो असख्य आत्मा .सुक्त /हो, मई हैं मुक्त हो रही हैं और सदा होती रहेंगी । हे देव, इस ससार-समद्रमें डुम्ख-रूप खारी पानीके सिवा और कुछ नहीं है , इस अथाह दुःख-जल्धिसे ममः इवतेको अगर रोर निकाल सकता है; तो तुम्दीं हो, और कोई नहीं ।७।. यही सोचकर मैं अपने दुःख-रुप रोगका इलाज कराने तुम्हारे पास आया हूँ ; तुम्दीं तो हो निमित्त-कारण ; इसीसे तो तुम्हारी शरण आया हूँ । मेरे उन दु्खोको तो सनो, जो में अनादि कार्ते भोग रहा हूँ ।1८। में अपने आपको भूलकर; अपनी अनन्त शक्तिणाली आरमाको भूलकर कर्स-फलको, पुप्य-पापको, ही अपनाता रहा! में, अपनेसे बिलकुल भिन्न, पर-पदार्थीमें अपना अजुुभव करता रहा; अपनेको परमे टेखता रहा, पर-वस्तुमे अपना इ्ट और अनिष्ट ठानता रहा ।९। इस अज्ञानसे मैं आकुल-व्याकुल होकर ऐसा अटकता फिरा; जैसे प्यासा खग सूगतृष्णासे भटक-भटककर सर जाता है, पर पानी नहीं पाता । इस शरीरकी परिणतिमे मैने अपनी कल्पना की मैने समसा कि यही में हूं जो ऊपरसे दीखता हूँ; और यही सोचकर कभी भी मैने सारभूत स्वपर, अपनी आमा, अयुमव नहीं किया कि में क्या हूँ १०] तुम तो जानते हो जिनेश, तुम्हें पहचाने बगेर जो-जो मैंने दु्ख उठाये हैं | स्वयं और नरक, मनुष्य और पशु, इन चारों गतियोंमे अनन्त बार पैदा हुआ हूँ और मरा हूँ 1११1. अब काल-लब्बिसे; चढ़ी-बढ़ी सुदिकिलॉसे परिव्तेन-चक्र पूरा करके; , है दया, आज तुम्दारा




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