धर्मध्यान | Dharmadhyan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
234
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)देव-स्तत्तिः
तंम्हारी वाणीके अनुसार चलकर, तप भास्क
मानकर, युभ-जंसो असख्य आत्मा .सुक्त /हो, मई हैं मुक्त हो
रही हैं और सदा होती रहेंगी । हे देव, इस ससार-समद्रमें
डुम्ख-रूप खारी पानीके सिवा और कुछ नहीं है , इस अथाह
दुःख-जल्धिसे ममः इवतेको अगर रोर निकाल सकता है; तो
तुम्दीं हो, और कोई नहीं ।७।. यही सोचकर मैं अपने
दुःख-रुप रोगका इलाज कराने तुम्हारे पास आया हूँ ; तुम्दीं
तो हो निमित्त-कारण ; इसीसे तो तुम्हारी शरण आया हूँ ।
मेरे उन दु्खोको तो सनो, जो में अनादि कार्ते भोग
रहा हूँ ।1८।
में अपने आपको भूलकर; अपनी अनन्त शक्तिणाली
आरमाको भूलकर कर्स-फलको, पुप्य-पापको, ही अपनाता
रहा! में, अपनेसे बिलकुल भिन्न, पर-पदार्थीमें अपना
अजुुभव करता रहा; अपनेको परमे टेखता रहा, पर-वस्तुमे
अपना इ्ट और अनिष्ट ठानता रहा ।९। इस अज्ञानसे मैं
आकुल-व्याकुल होकर ऐसा अटकता फिरा; जैसे प्यासा खग
सूगतृष्णासे भटक-भटककर सर जाता है, पर पानी नहीं पाता ।
इस शरीरकी परिणतिमे मैने अपनी कल्पना की मैने समसा
कि यही में हूं जो ऊपरसे दीखता हूँ; और यही सोचकर
कभी भी मैने सारभूत स्वपर, अपनी आमा, अयुमव
नहीं किया कि में क्या हूँ १०] तुम तो जानते हो जिनेश,
तुम्हें पहचाने बगेर जो-जो मैंने दु्ख उठाये हैं | स्वयं और
नरक, मनुष्य और पशु, इन चारों गतियोंमे अनन्त बार पैदा
हुआ हूँ और मरा हूँ 1११1. अब काल-लब्बिसे; चढ़ी-बढ़ी
सुदिकिलॉसे परिव्तेन-चक्र पूरा करके; , है दया, आज तुम्दारा
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