स्थितप्रज्ञ दर्शन | Sthitpragya - Darshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
178
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave
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हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्५्
१५५ कामना ,और जीवनाभिलाषा छूटने पर अब शरीर वाकी रहा सो
केवल उपकारा्थं । निर्ममो निरहकार ' पद से यही भाव सूचित
किया हैं
[३]
१५६ पूर्वोक्त भावनावस्था और क्रियावस्था से भिन्न स्थित-प्र्ञ की यह
ज्ञानावस्था बिल्कुल अवर्णनीय
१५७ भावावस्था मे समग्रता है
१५८ क्रियावस्था मे विवेक है
१५९ तीनो अवस्थाएटं मिलाकर स्थित-प्रज्ञ कौ एक ही अखण्ड वृत्ति
सोलह्वा व्याख्यान १४६-१५५
| १ ]
१६० स्थित-प्रज्ञ की तिहेरी अवस्था के मूर मे ईङखवर का चि विघ स्वरूप
१६१ ईदवर का पहला रूप केवल शुभ
१६२ दूसरा विद्वरूप
१६३ तीसरा शुभाशुभ से परे ब्रह्म-सज्ञित
१६४ गीता कौ परिभाषां मे 'सत्', 'सदसत्' (न सत् नासत
१६५ तकं से सदसत् की चार कोिया हौ सकती ह । इनमे तौन ही ईरवर
पर चरितां
| २
१६६ ईङ्वर कं ओर तदनुसार स्थितप्रज्ञ के जीवन का यह् विविध स्वरूप
ज्ञान-यज्ञेन चाप्यन्ये' इरोक मे सूचित ,
१९७ इसीका ओर अधिक स्पष्टीकरण
१६८ बाह्य जीवनाकार में भेद दिखाई देने पर भी सभी स्थितप्रज्ञो को
तीनो अवस्थाओ का अनुभव होता है
[ २ |
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१६९ ये अवस्थाएं परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर उपकारक ही हैँ
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