एक हिंदी साहित्य : एक दृष्टि | Naya Hindi Sahitya : Ek Drishti

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Naya Hindi Sahitya  : Ek Drishti  by प्रकाशचन्द्र गुप्त - Prakashchandra Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३ र५ ३ हिन्दी साहित्य की प्रगति हमारे कवियों ने जीवन से सुख मोड़ अनन्तः को अपना राग सुनाया है। हमारे ककानीकार केवछ मध्य-श्रेणी के जीवन-चित्र खीचने में गे है । प्रेभचन्द्‌ ने अवदय ही फैक्टरी और बाजारों में जो नई पुकार उठी है; उसे सुना था और उनकी कछा में हमें इसकी प्रतिध्वनि मिछती है। हिन्दी के एकाकी नाटककार “्रसाद' अतीत के सुनददखे सपने देखने मे तछलीन जीवन के दुम्सहद दुम्स्वप्र न देख सके । पन्त छ परिवर्तन मे देश का करन्दन व्यापक नाद्‌ कर उटा है । कवि के हृदय की अन्तवेदना यदो विवश द्ाद्यकार कर उठी है । भज ते सौरभ छ मघुमाक्ष दिदिर में भता सूती साध वद्दी मधुऋतु की गुल्लिठत उल झुकी थी जा यौवन के भार, भक्व्बिता में निज तत्काठ षिहर उठती,--जीवन दै भार ! भाज पावश्च-नद्‌ के उद्गार काल के बनते चिह करालः प्रात का सोने का. ससार जङ्ग देती सध्या कौ ज्वाल | भखिल यौवन के रंग उभार दृड़िपें के दिते कंन क्चें के चिकने, काठे व्याक कंचुली, कासि, पिषार गुंजते है सबके दिनं चार, सभी फिर दाहकर ॥ 'रूपाभ' के जन्मा से पन्तजी के कान्य काभी पुनजैन्म हुआ है ओर आपके छन्द्‌ के बन्धः सुर गये है । शप्रम्या अभी तक्‌ पन्ते की स्वै-सबल ऊति हे । १




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