आधुनिक कवि ३ | Aadhunik (kavi Vol. - III)

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Aadhunik (kavi Vol. - III) by रामकुमार वर्मा - Ramkumar Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~~ ६ ~~ लाल हो जाता है तब उसमे भोश्रागका गुण श्रा जाता दहै, वह किसी को भी जला रुकता है किन्ठु राग से लाज् दो जाने पर भी वद लोहे का गोला तो रहता दी है | उसे इम श्राग मी कद सकते हैं श्रौर नहीं भी कई सकते क्योंकि श्रन्ततः वद्द श्राग के अतिरिक्त लोदे का गोला भी है । श्रतः वद्द श्राय है भी श्र नहीं भी है । इषी प्रकार आत्मा ब्रह्य के गुणं से ओतपोत हो जाने पर ब्रह्म है भी और नहीं भी है । इसमें “व्यक्ति' का विनाश न दोकर उसका विकास है | गुण का लोप न द्ोकर ऐक्य है । इस प्रकार रहस्यवाद में जीवात्मा की स्थिति एक विरोधात्पक भावना उन्न करती दै । ज साधक के द्वारा ब्रह्म की श्रनुभूति. होती है तो वह ब्रह्म मे लीन तो श्रवश्य हो जाता है लेकिन लीन होने की भावना को भी जानता हे । जैसे सूय॑ के प्रकाश में मोमबत्ती | ययपि मोमबत्ती सूर्य के प्रकाश में लीन तो हो जाती है तथापि उसका श्रस्तित्व भी है क्योंकि वह जलती जो है ।* वद्द यूय के प्रकाश में नहीं भी है श्र है भी | यद्दी रहस्यवाद की भावना है | साधिका श्रात्मा ब्रह्म की लाली में मिल कर भी कहती है लो, में भी लाल हो गई | इस प्रकार रदस्यवाद ब्रह्म की महान्‌ अनुभूति में भी व्यक्तित्व की भावना सुरक्षित रखता है । रद्दस्ववाद से यह भी निश्चित हो जाता है कि रह्म कौ शक्ति अपिरिमित होकर साधक की शक्ति से उच्चतर है । वह अन्तन्यापी होते हए भी सर्वोपरि है । श्रन्तर्व्याषी इस रूप में कि वह ससार के कण कणु में वर्तमान है | कणों में व्यास इसी ब्रह्म को साधक खोज कर पहिचान लेता है । श्रौर सर्वोपरि इस रूप में कि साधक के द्वारा हदयगम हो जाने पर मी ब्रह्म की सत्ता श्रेष्ठतर रहती है । जिस प्रकार महुरं गी पकती जल मेँ सौ वार डूब कर मौ श्रपने प्ख का रंग नीं खोता, उसी भाँति सर्वोपरि ब्रह्म ससार में झनेक बार प्रवेश कर भी श्रपनी उच्चता नव मभा लेकर चला ह, पर जघन के साथ हूँ मैं । ( मेरी किरण-कण शौपंक कविता )




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