रवीन्द्र-साहित्य (चौदहवाँ भाग) | Ravindra - Sahitya (bhag - 14)
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बिसजेन : नाटक १५
नेपथ्यर्मे गीत `
चला अकेला पन्धी जगका,
कौन दिखाये पथ इस भवका 2
जयसिह--मा; यह केसी माया ! देवताके लिए अपने प्राण देते हैं
मानव-प्राण ।. अमी-अभी तुम निर्वाक निश्वल थीं, - अव जीवन्त दो उर्ठी;
सन्तानकी पुकारसे सजग हो उठीं जननी !
गीत गाते-हुए अपणाका प्रवेश्य
चला अकेखा पन्थी जगका,
कौन दिखाये पथ इस भवका 2
ना डर, ना भय,
चल चिन्मय
मधुप बना लोभी सौरभका
भटक रदा दहै पन्थी भवका ।
जयरसिह्--गकेखा ! दक्षिणी पवन अगर बन्द् हो जाय, फूलका सौरभ
अगर न आये, दर्सों दिशाएं अगर जाग उरे सन्टेहके समान, तो फिर
कहाँ है सुख, कहाँ है मागं १ जानती दो, अकेला किसे कहते हैं ४
अपर्णा--जानती हू । में तो परिपूर्ण हृदय छिये वेदी ह, देना चाहती
ह, पर कोई लेनेवाला नहीं |
जयसिंह--सजनसे पहले देवता जेंसे अकेला है ] ठीक कहती हो !
सच है 1 माम होता है यदह जीवन बहुत ज्यादा है, - जितना बडा है
उतना दी सूना है, उतना ही अनावश्यक ।
अपर्णा--जयसिहद, छुम शायद अकेले हो! इसीसे देखती हू, जो
कगाल है. उससे भी बढकर कगाल हो तुम ] जो तुम्हारा सब-कुछ ले सकती
है, मानो तुम उसीको ढ्ढ रहे हो। इसीसे, भटक रहे हो तुम दीन-दुः्खी
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