रवीन्द्र-साहित्य (चौदहवाँ भाग) | Ravindra - Sahitya (bhag - 14)

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Ravindra - Sahitya (bhag - 14) by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बिसजेन : नाटक १५ नेपथ्यर्मे गीत ` चला अकेला पन्धी जगका, कौन दिखाये पथ इस भवका 2 जयसिह--मा; यह केसी माया ! देवताके लिए अपने प्राण देते हैं मानव-प्राण ।. अमी-अभी तुम निर्वाक निश्वल थीं, - अव जीवन्त दो उर्ठी; सन्तानकी पुकारसे सजग हो उठीं जननी ! गीत गाते-हुए अपणाका प्रवेश्य चला अकेखा पन्थी जगका, कौन दिखाये पथ इस भवका 2 ना डर, ना भय, चल चिन्मय मधुप बना लोभी सौरभका भटक रदा दहै पन्थी भवका । जयरसिह्‌--गकेखा ! दक्षिणी पवन अगर बन्द्‌ हो जाय, फूलका सौरभ अगर न आये, दर्सों दिशाएं अगर जाग उरे सन्टेहके समान, तो फिर कहाँ है सुख, कहाँ है मागं १ जानती दो, अकेला किसे कहते हैं ४ अपर्णा--जानती हू । में तो परिपूर्ण हृदय छिये वेदी ह, देना चाहती ह, पर कोई लेनेवाला नहीं | जयसिंह--सजनसे पहले देवता जेंसे अकेला है ] ठीक कहती हो ! सच है 1 माम होता है यदह जीवन बहुत ज्यादा है, - जितना बडा है उतना दी सूना है, उतना ही अनावश्यक । अपर्णा--जयसिहद, छुम शायद अकेले हो! इसीसे देखती हू, जो कगाल है. उससे भी बढकर कगाल हो तुम ] जो तुम्हारा सब-कुछ ले सकती है, मानो तुम उसीको ढ्ढ रहे हो। इसीसे, भटक रहे हो तुम दीन-दुः्खी




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